तुम्हारी खुशबू

तुमने मुझसे 
वो हर छोटी-छोटी बात 
वो हर चाहत कही 
जो तुम चाहती थी 
कि तुम करो 
कि तुम जी सको 
पर शायद तुमको 
कहीं ना कहीं पता था 
कि तुमने अपनी चाहत की खुश्बू 
मुझमें डाल दी 
वैसे ही जैसे जीवन डाला था कभी 
कि मैं करूँ; 
और इस तरह 
शायद वायदा कर रहा था मैं तुमसे 
उस हर बात की 
जिससे जूझना था मुझे 
जहाँ तुम्हारा होना जरूरी था; 
पर तुम ना होगी 
ये जान कर शायद इसलिए 
तैयार कर रही थी मुझे। 

पर तब कहाँ समझ पाया 
कि माथे पर दिए चुम्बन 
बालों को मेरे सहलाने 
टकटकी लगा कर देखने का 
मतलब ये था 
कि हर शाम की सुबह नहीं होती
कि कुछ सुबहें कभी नहीं आतीं।
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राजीव उपाध्याय

जब आदमी नज़र आता है

कि उम्र सारी 
बदल कर चेहरे 
खुद को सताता है 
जब जूस्तजू जीने की 
सीने में जलाता है; 
उम्र के 
उस पड़ाव पर 
आ कर ठहर जाना ही 
सफ़र कहलाता है 
आदमी
जब आदमी नज़र आता है।
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राजीव उपाध्याय

कुछ आँसू

मिरी आँखों से कुछ आँसू 
ऐसे भी रिसते हैं 
जो किसी को दिखते नहीं 
और शायद 
अब उनका कोई मतलब भी नहीं। 

पर इतना यकीन 
मुझको मेरे 
आँसुओं के बह जाने में है 
कि साँसे भी मेरी 
कई बार फीकी पड़ जाती हैं 
और मेरे होने की वजह भी 
उन आँसुओं तक चली आती है।
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राजीव उपाध्याय

अजनबी है

रहता हूँ शहर में जिस
अजनबी है।
कभी कहीं
तो कभी कहीं है॥

हालात है ये
कि ना कोई जानने वाला
और ना ही
सड़कें पहचानती हैं।
रहता हूँ शहर में जिस
अजनबी है।

हर तरफ शोर ही शोर है
और चकाचौंध भी
पर मनहूस सी खामोशी कोई
भारी है सीने में;
जो जीने का सबब भी देती है
और मरने की वजह भी;
और यूँ कर के बेखौफ हूँ
फिर भी मगर
डर कहीं ना कहीं है।
रहता हूँ शहर में जिस
अजनबी है॥

जान-पहचान के लोग
और गलियाँ सारी
जो सुनते थे मुझको;
खामोश हो गए हैं
कि मुलाकात अब होती नहीं;
और गाहे-बाहे
जो पड़ते कभी सामने
तो फेरते हैं मुँह
जैसे कोई अजनबी।
रहता हूँ शहर में जिस
अजनबी है।

कुछ इस तरह से
दो छोरों के बीच
नदी बन बहता जा रहा हूँ
जिसमें कोई रवानगी नहीं;
बस हड़बड़ी है एक
कि छोर दोनों एक हो जाएं
या मैं खो जाऊं कहीं।
बस इतने में ही सिमटी
ये जिन्दगी है।
रहता हूँ शहर में जिस
अजनबी है॥
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राजीव उपाध्याय