जिन स्वर लहरियों पर गुनगुना तुमने कभी सीखाया था
वो आज भी अधुरे हैं
कि नाद अब कोई नहीं।
हर ध्वनि जो अब गूँजती
तुम तक क्या पहुँचती नहीं?
या अनसुनी कर देने की कला भी तुम जानती हो?
काश तुम कुछ ऐसा करती
कि संदेश हर तुम तक पहुँचता
या फिर तुम ही कोई पाती पठाती
कि कहानियों में तेरे कुँवर बन
घोड़े को चाबुक लगाता।
नहीं
मैं जानता हूँ माँ!
कि अब तुम कुछ कर सकती नहीं
कि खेल के नियम बदलकर
आगे बहुत निकल गई हो
कि लौटना जहाँ से
अब कभी मुमकिन नहीं।
हाँ हो सके तो कुछ देर तुम इन्तजार करना
मैं भी आऊँगा राह तेरे
आज नहीं तो कल सही।
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मैं भी कभी हो बेसुध, नीड़ में तेरी सोता था
बात मगर तब की है, जब माँ तुझे मैं कहता था।
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राजीव उपाध्याय
Keep on writing, great job!
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