लौटना होगा जड़ों की ओर

नदियाँ, झीलें, तालाब और भूगर्भ का जल हर बीतते दिन के साथ सूखता जा रहा परन्तु इस धरती को जल की आवश्यकता बढती ही जा रही। दिल्ली में यमुना नाला बन चुकी है तो कानपुर में गंगा। कावेरी भी रो रही है और नर्मदा का हाल भी कुछ बहुत अच्छा नहीं है। झीलें हम इन्सानों की जमीन हवस पूरा करने में छोटी होती जा रही हैं तो गाँवों एवं शहरों के तालाब और कुँओं को पाटकर नलकूप लगा दिए गए हैं ताकि सहूलियत हो सके। पेड़ों को काटकर घरों को काँच का बना लिया ताकि इन घरों की चमक दूर तक पहुंचे कि देखने वालों की आँखें चौधिया जाएं। इस सहूलियत की लालसा, और अधिक पाने की हवस और प्रगतिशील बनने एवं दिखाने के नाटक में हमने हर उस चीज को ध्वस्त कर दिया है जो हमारे अस्तित्व के लिए जरूरी है और हमने हर उस गैर जरूरी चीजों को अपने जीवन का अपरिहार्य हिस्सा बना लिया है जिसके होने ना होने से हमारे जीवन कोई नकारात्मक असर नहीं पड़ने वाला है और हमें लगता है कि हमने विकास किया है। पता नहीं ये कैसा झूठ है या फिर साजिश कि हम आँख खोलकर देखना ही नहीं चाहते।

हमने हर चीज के लिए नए शब्दों और परिभाषाएं को गढ लिया है जो हमारी सहूलियतों के मुताबिक हैं पर हमरी सहूलियतों से प्रकृति को कुछ भी लेना देना नहीं है। प्रकृति का अपना चक्र है और वो चुपचाप चलता रहता है और जब उस चक्र में कोई अवरोध आता है तो प्रकृति मजबूती के साथ उन अवरोधों के प्रतिरोध में खड़ी हो जाती है और हम उसे प्राकृतिक आपदा कह अपनी जिम्मेदारियों का बोझ प्रकृति पर डाल देते हैं।

आज पूरी दुनिया पृथ्वी के बढते तापमान के कारण आए मौसम में बदलावों से परेशान है और उन कारणों को ढूंढने में लगा हुआ ताकि उनका सही तरीके से प्रबन्धन नहीं तो समायोजन किया जा सके परन्तु उनका निदान नहीं करना चाहता है और खोज करता कार्बन क्रेडिट और उसके ट्रेडिंग की संस्था का और चाहता है कि प्रकृति इन बहकावों में आ जाए जैसे पूरी दुनिया जानते हुए आती है। और इसके लिए कर रहा है सेमीनार, सभा, नुक्कड़ नाटक, वैज्ञानिक शोध और जाने क्या-क्या। और ये सब करते हुए प्रगतिशीलत नामक हथियार का इस्तेमाल बड़े ही प्रभावी तरीके से करता है। और इस प्रगतिशीलता के चादर को ओढकर पूरी की पूरी सभ्यता एवं संस्कृति को तबाह कर देता है। इस प्रगतिशीलता की योजना के तहत आपको तकनीक एवं सुविधाओं का गुलाम बनाया जाता है इसके लिए परम्पराओं को गलत बताकर नकारा जाता है और इस हेतु कोई आप में से ही खड़ा होकर आपकी परम्पराओं गलत बताने एवं साबित करने लगता है। धीरे-धीरे सब खत्म हो जाता है और किसी लातूर में प्यासे मरने लगते हैं तो किसी बूंदेलखण्ड में पानी के लिए हत्याएं करने लगते हैं। कभी नेपाल के भूकम्प बच्चे अनाथ होते हैं तो दक्षिण भारत और श्रीलंका की सुनामी में बुढ़े बेसहारा।

आप प्रगतिशीलता के पक्षधर बनकर चाहे जितने सेमीनार, सभा, नुक्कड़ नाटक, वैज्ञानिक शोध या चाहे जो जी में आए करिए कोई रोकेगा नहीं परन्तु आपके इन प्रयासों से होने वाला कुछ भी नहीं है जब तक कि आप प्रकृति के साहचर्य में जीना प्रारम्भ नहीं करते और इसके लिए अंततः आपको उसी भारतीय जीवन पद्धति को अपनाना पड़ेगा जिसे आप गालियाँ दे-देकर गलत बताते नहीं थकते। आज मराठावाड़ा और बूँदेलखण्ड सूखे के चपेट में कल बघेलखण्ड, पश्चिम उत्तरप्रदेश, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान, आन्ध्र प्रदेश और कर्नाटक भी मराठावाड़ा और बूँदेलखण्ड का साथ निभाएंगे।

विज्ञान की अपनी सीमाएँ हैं और प्रकृति का उन सीमाओं से कुछ भी लेना देना नहीं है। उसे तो संतुलन एवं सामंजस्य बैठना है और बैठा रही है और बैठाती रहेगी। और हम भिखारी अपने आप को राजा समझकर प्रकृति को गुलाम समझ रहे हैं पर ऐसा बहुत दिन तक चलनेवाला नहीं है। वक्त आ गया है कि आप अपने घर का एसी और रूम हीटर बन्द कर दें, ओवन के बदले गैस के चूल्हे से काम चलाएं, हो सके तो पैदल नहीं तो बाजार साइकिल से जाएं, चीनी के बदले गुड़ खाएँ। इस तरह से आप किफायती हो रहे हैं मगर पैसे को लेकर नहीं बल्कि अपनी सांसों और आनेवाली पीढ़ियों की सांसों के लिए।

और हाँ यदि हो सके तो कुछ मिथकों पर भी यकीन करिए नहीं तो मनु के प्रलय, बाइबिल और कुरान की बाढ़ में आप और हम तैरते नजर आएंगे। यही बहुत होगा वर्ल्ड अर्थ डे के लिए।

(युगान्तर टूडे के मई अंक में प्रकाशित)

राजीव उपाध्याय

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