शरजील इमाम, गोपाल और उनके बाद कपिल ने अनेकों सवालों को जन्म दिया है। परन्तु इसी शोर के बीच लोहरदगा में 23 जनवरी को नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) का समर्थन करने वाली तिरंगा रैली पर समाचार खबरों के हिसाब से मुस्लिम इलाके से गुजरते समय भीड़ पथराव कर देती है जिसमें अनेक लोग जख्मी हो जाते हैं। उसके पश्चात लोहरदगा में कर्फ्यू लगाना पड़ता है। उसी पथराव में चोट लगने के कारण नीरज प्रजापति नाम के एक व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है। गिने-चुने कुछ समाचार माध्यमों को छोड़कर इस खबर को कहीं कोने में दबा दिया जाता है।
मीडिया के ऐसे व्यवहार की ये कोई पहली घटना नहीं है। अक्सर ऐसा देखा जाता है कि जब भी किसी भी हिंसा में मुस्लिम पक्ष हिंसक होता है तो ऐसी खबरें तथाकथित गंगा जामुनी तहजीब व धर्मनिरपेक्षता के नाम पर या तो दबा दी जाती हैं या फिर उस समूह की धार्मिक पहचान छुपा दी जाती है। परन्तु जब उसी तरह की हिंसा किसी मुस्लिम के साथ होती है तो वो घटना प्राइम टाइम की खबर बन जाती है। पहलू खान व तबरेज आदि का नाम लेकर देश की धर्मनिरपेक्षता को खतरे में बताते हुए कभी प्रत्यक्ष तो कभी अप्रत्यक्ष तौर पर हिन्दूओं से प्रश्न पूछा जाता है। यही व्यवहार देश का बौद्धिक जगत भी प्रदर्शित करता है। मीडिया एवं बौद्धिक जगत की यह दोहरी प्रवृत्ति भारत के बहुसंख्यक हिन्दू समाज को अखरती है। अखरता इसलिए नहीं है कि वो किसी हिंसा को सही मानते हैं या सही ठहराना चाहते हैं बल्कि बल्कि अखरता इसलिए है कि आप धर्मनिरपेक्षता को खतरे में बताते हुए आप पूरे हिन्दू समाज को कटघरे में खड़ा कर देते हैं। उन्हें लगता है कि उनके बहुसंख्यक के होने कारण उन्हें अल्पसंख्यकों के प्रति असहिष्णु व हिंसक बताया जा रहा है। उनके अन्दर उठने वाला ये सवाल बहुत हद तक सही भी है। शायद यही वजह है कि वे लोग बार-बार पूछते हैं कि ये कैसी गंगा जामुनी तहजीब है जहाँ मुस्लिम समाज द्वारा की जाने वाली हिंसा पर कभी कोई प्रश्न ही नहीं उठाया जा सकता?
ऐसा नहीं है कि बहुसंख्यक हिन्दू समाज में हिंसा को समर्थन देने वाले तत्व ही नहीं है। अनेकों हैं परन्तु अभी भी वो मार्जिन पर खड़े हैं जो धीरे-धीरे समाज द्वारा स्वीकृत हो रहे हैं। एक दूसरी प्रवृत्ति मुस्लिम समाज द्वारा अपनाई जाती है। जब भी किसी मुस्लिम के साथ हिंसा होती है तो मुस्लिम समाज का एक हिस्सा विक्टिम बनकर सामने आ जाता है और जब कोई मुस्लिम हिंसा करता है तो वो चुप्पी साध लेता है। आप उसका उदाहरण शरजील के केस में देख सकते हैं। बहुत कम लोगों ने शरजील को गलत कहने का साहस दिखाया। बल्कि कुछ लोग तो खुलेआम उसे भावुक बताकर उसका बचाव व समर्थन तक करने लगे और अधिकतर लोगों ने इन सिम्पैथाइजर्स से एक सवाल तक नहीं पूछा! ऐसा नहीं है कि मुस्लिम समाज के सभी लोग मुस्लिमों द्वारा की हिंसा व शरजील जैसे मुद्दों पर आवाज नहीं उठाते है। कुछ लोग जरूर उठाते हैं परन्तु जब भी मुस्लिम समाज का कोई व्यक्ति मुस्लिमों से इस बारे में सवाल पूछ लेता है तो उसी से उल्टे सवाल पूछा जाने लगता है। बहुसंख्यक समाज भी अल्पसंख्यक समाज की तरह ही चाहता है कि जब उसके खिलाफ कोई घटना हो तो सभी उनको नैतिक समर्थन दें। यदि नैतिक समर्थन नहीं दे सकते तो कम से कम सहानुभूति तो रखें! ये बहुत ही साधारण सी बात है परन्तु वो नैतिक समर्थन और सहानुभूति कभी नहीं मिलता। उल्टे भी बौद्धिक तपके के लोग सवाल पूछने वालों को डाँटते नजर आ जाते हैं।
ऐसा नहीं है कि बहुसंख्यक हिन्दू समाज में हिंसा को समर्थन देने वाले तत्व ही नहीं है। अनेकों हैं परन्तु अभी भी वो मार्जिन पर खड़े हैं जो धीरे-धीरे समाज द्वारा स्वीकृत हो रहे हैं। एक दूसरी प्रवृत्ति मुस्लिम समाज द्वारा अपनाई जाती है। जब भी किसी मुस्लिम के साथ हिंसा होती है तो मुस्लिम समाज का एक हिस्सा विक्टिम बनकर सामने आ जाता है और जब कोई मुस्लिम हिंसा करता है तो वो चुप्पी साध लेता है। आप उसका उदाहरण शरजील के केस में देख सकते हैं। बहुत कम लोगों ने शरजील को गलत कहने का साहस दिखाया। बल्कि कुछ लोग तो खुलेआम उसे भावुक बताकर उसका बचाव व समर्थन तक करने लगे और अधिकतर लोगों ने इन सिम्पैथाइजर्स से एक सवाल तक नहीं पूछा! ऐसा नहीं है कि मुस्लिम समाज के सभी लोग मुस्लिमों द्वारा की हिंसा व शरजील जैसे मुद्दों पर आवाज नहीं उठाते है। कुछ लोग जरूर उठाते हैं परन्तु जब भी मुस्लिम समाज का कोई व्यक्ति मुस्लिमों से इस बारे में सवाल पूछ लेता है तो उसी से उल्टे सवाल पूछा जाने लगता है। बहुसंख्यक समाज भी अल्पसंख्यक समाज की तरह ही चाहता है कि जब उसके खिलाफ कोई घटना हो तो सभी उनको नैतिक समर्थन दें। यदि नैतिक समर्थन नहीं दे सकते तो कम से कम सहानुभूति तो रखें! ये बहुत ही साधारण सी बात है परन्तु वो नैतिक समर्थन और सहानुभूति कभी नहीं मिलता। उल्टे भी बौद्धिक तपके के लोग सवाल पूछने वालों को डाँटते नजर आ जाते हैं।
अभी कुछ दिन पहले जब नागरिकता कानून का विरोध कर रही भीड़ के हिंसा करने के बाद पुलिस ने कारवाई की तो चारों ही तरफ शिकायत हो रही थी जो ठीक भी है। पुलिस का काम हिंसा करना नहीं बल्कि सुरक्षा देना है परन्तु उसी समय बहुत कम ही लोग भीड़ की हिंसा पर सवाल कर रहे थे जबकि वही भीड़ लखनऊ में पुलिस चौकी तक फूँक दी थी। पूरे देश में पुलिस के साथ हिंसा एवं सम्पतियों का विनाश किया था। यहाँ तक दिल्ली के सीलमपुर और बंगाल में बम तक फेंका गया था। हालाँकि जब आप किसी भी समाज या समूह के हिंसा को छुपा रहे होते हैं तो आप हिंसा को अप्रत्यक्ष तौर पर जायज बता रहे होते हैं और अंततः उस समाज को धीरे-धीरे एक मिलिटेंट समाज में बदल रहे होते है। कई लोग ये तर्क देते मिल जाते हैं कि अल्पसंख्यक समाज में डर होता है इसलिए वो अपने डर की प्रतिक्रिया में कई बार हिंसक हो जाता है। परन्तु ये डर क्यों होता है? इसी देश में पारसी समाज भी तो रहता है। उसने तो कभी भी किसी डर का आज तक जिक्र नहीं किया! तो ये भय सिर्फ मुस्लिम समाज के अंदर ही क्यों? क्या इसके कुछ ऐतिहासिक कारण भी हैं?
आज लोग पूछ रहे हैं कि क्या नीरज प्रजापति का संविधान में आस्था जताना ही उसकी गलती थी? यदि नहीं तो फिर चारों तरफ गोधरा कांड की तरह ही इस मामले में चुप्पी क्यों है? कहीं कोई खबर नहीं? यदि एक भीड़ की हिंसा जायज है (चाहे वह भीड़ किसी भी धर्म या समाज से क्यों ना हो) तो फिर एक व्यक्ति की हिंसा कैसे गलत हो सकती है? आप कैसे गोपाल या कपिल पर सवाल उठा सकते हैं? यदि किसी मुस्लिम चरमपंथी को भटका हुआ बताया जा सकता है तो फिर गोपाल और कपिल जैसे कट्टरपंथियों को भी भटके हुए ही हैं? ऐसा नहीं है कि मुस्लिम समाज के अन्दर कोई सवाल या भय जैसा कुछ है ही नहीं। अनेकों सवाल आज वहाँ भी है जो अनुत्तरित हैं।
हो सकता है आज आप लोगों के इन सवालों को हँस के टाल दें या फिर कम्युनल कह दें परन्तु ये सवाल आने वाले कल का सूत्र दे रहे हैं और बता रहे हैं कि आपका व्यवहार और तर्क दोनों ही ठीक नहीं है। सच तो ये है कि हर घटना चाहे छोटी हो या बड़ी अपने पीछे एक सवाल छोड़ जाती है। और सिर्फ सवाल ही नहीं छोड़ जाती है बल्कि आने वाले कल का सूत्र भी दे जाती है।
जब आप शरजील इमाम और नीरज प्रजापति पर एक षडयंत्रकारी चुप्पी साध लेते हैं तो प्रतिक्रिया स्वरूप गोपाल और कपिल जैसे लोग स्वतः पैदा होने लगते हैं। और इनके चाहने वाले भी पैदा हो जाते हैं क्योंकि आप जानबुझकर उन्हें विक्टम जैसा सोचने पर मजबूर कर रहे होते हैं। किसी भी देश या समाज के बहुसंख्यक वर्ग के अन्दर विक्टिम होने का भाव जगा देना कम खतरनाक नहीं है।
चाहे आप कुछ कर लीजिए यदि आप क्रिया को कंट्रोल नहीं कर सकते तो प्रतिक्रिया होगी ही चाहे समाज कितना ही सहिष्णु क्यों ना हो? म्यांमार और श्रीलंका का अहिंसक बौध भी प्रतिक्रिया स्वरूप आखिरकार हिंसक हो गया है। क्या आप भी चाहते हैं यहाँ का बहुसंख्य समाज हिंसक या हिंसा का समर्थक बन जाए? यही कारण है कि आज कुछ लोग गोपाल को अधीर कह रहे हैं और ये वो समाज कह रहा है जो हिंसा का समर्थन करता नहीं दिखता था। हालाँकि सभ्य समाज में हिंसा को किसी भी तरह से स्वीकार्यता प्रदान नहीं किया जा सकता। परन्तु जब समाज का सबसे बड़ा हिस्सा ही स्वयं को विक्टिम मानने लगे तो गोपाल जैसे लोग कल क्रान्तिकारी कहे जाएंगे और आप अपना सिर पीट भी नहीं पाएंगे। जी हाँ आपकी बौद्धिक हिप्पोक्रेसी हिन्दुओं के अन्दर विक्टिम भाव पैदा कर रही है और विक्टिम होने का भाव व्यक्ति व समाज दोनों ही को अंततः हिंसक बना ही देता है।
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