कोरोना रूपी मानवीय त्रासदी

कहते हैं कि जब आप दूसरों के लिए गढ्ढा खोदते हैं तो उस गढ्ढे में आपके गिरने की संभावना भी लगातार बनी रहती है। यह कंटीले तार पर चलने जैसा है। आप चाहें ना चाहें परन्तु आपके पाँव उन कँटीले तारों से जख्मी हो ही जाते हैं। कोरोना वायरस से पीड़ित आज के चीन की स्थिति भी एक ऐसे ही व्यक्ति की हो गई जो दूसरों के लिए स्वयं के द्वारा बिछाए गए कंटीले तारों से जख्मी हो गया हो और जख्म की दवा भी दिखाई नहीं दे रही हो। आज वुहान शहर और हुबेई प्रांत इस समय दुनिया की सबसे बडी त्रासदी से गुजर रहे हैं।

अंतरराष्ट्रीय मीडिया के अनुसार हुबेई के किसी बायोकेमिकल लैबोरेट्री में चीनी वैज्ञानिक केमिकल वेपन के रूप मे उपयोग में लाए जा सकने लायक वायरसों की खोज एवं प्रयोग हो रहा था। उसी क्रम में हुएह लीकेज के कारण ये वायरस कंट्रोल्ड इंवायरमेंट से निकलकर मानवीय संपर्क में आ गया और जब वैज्ञानिकों को इसकी खबर लगी ये कोरोना वायरस बेतरतीब तरीक़े से फैल शुरू कर दिया था।

ऐसा नहीं है कि इस वायरस के फैलने के संबंध में कोई पूर्वानुमान एवं सूचना नहीं थी। चीन के ही एक डॉक्टर ली वेनलियांग ने आगाह कर दिया था परन्तु चीनी अधिकारियों ने सत्य को उजागर करने के कारण उल्टे डॉक्टर के खिलाफ कार्यवाही की थी। कुछ दिन डॉ ली भी इस वायरस के चपेट में आकर मृत्यु को प्राप्त कर चुके हैं। अब तक हजारों लोग इस वायरस से संक्रमित हो चुके हैं। चीनी अधिकारियों के अनुसार अब तक 800 से अधिक लोगों की मृत्यु हो चुकी है। हालांकि टेन्सेंट के हिसाब से मृतकों की संख्या 24000 से ऊपर जा चुकी है। कोरोना वायरस अब तक दुनिया के 27 से अधिक देशों में फैल चुका है। अब तक ना तो चीन और ना ही वर्ल्ड हेल्थ आर्गेनाइजेशन इसके फैलाव को रोक पाने सक्षम हैं।

डॉक्टरों ने संभावना व्यक्त की है कि पूरा हुबेई प्रांत ही इस वियरस के इसके चपेट में आ सकता है। मीडिया रिपोर्ट के अनुसार इस संभावना के कारण चीनी अधिकारियों ने वहाँ के नागरिकों के हुबेई से बाहर निकलने पर रोक लगा दी है ताकि ये वायरस चीन के अन्य भागों में ना फैले। अकेले हुबेई प्रान्त की आबादी तकरीबन 5.8 करोड़ है। कुछ खबरें तो ये भी बता रही हैं कि चीन ने इस वायरस से संक्रमित सभी मरीजों जो बीस हजार से अधिक हैं को मारने की अनुमति के लिए कोर्ट में आवेदन किया है। यदि ये सारी सूचनाएं सत्य हैं तो समूची मानवता के लिए इससे अधिक दुखद क्या हो सकता है कि अपने ही लोगों को बचाने के लिए अपने ही लोगों को मारना पडेगा और वो भी मानवीय तृष्णाओं के कारण!

इन परिस्थितियों को देखते हुए क्या हमें स्वयं से ये प्रश्न करना आवश्यक नहीं है कि हम जिस शक्ति को अर्जित करने के लिए इतना कुछ कर रहे हैं वो हमें किस कीमत पर मिल रही है? क्या शक्ति अर्जित करने की प्रतिस्पर्धा में हर तरह की नैतिकता एवं उत्तदायित्व नगण्य हो जाते हैं? युद्ध और पारस्परिक घृणा का भाव क्या सचमुच इतना इतना घनीभूत होता है कि कि स्वयं अपने अस्तित्व के प्रति इंसान बेपरवाह हो जाता है?

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