फाँसी पर सवाल क्यों

आज अंततः सात साल के बाद निर्भया के दोषियों को देर से ही सही परन्तु सजा मिल गई। निर्भया के माता-पिता की ये लड़ाई ना सिर्फ उनके लिए बल्कि पूरे समाज के लिए ही बहुत ही लम्बी एवं अंदर तक तोड़ देने वाली लड़ाई साबित हुई है। इसलिए लोग खुश हैं। उनका कानून पर विश्वास मजबूत हुआ है क्योंकि निर्भया के गुनाहगार बार-बार किसी ना किसी कानूनी पेंच के कारण फाँसी के फँदे से बचते जा रहे थे जो पूरे समाज के लिए भयावह था। परन्तु इसके बाद भी निर्भया के गुनाहगारों के फाँसी का अनेक तर्कों एवं तथ्यों के आधार पर विरोध हो रहा है। कहा जा रहा है कि मृत्युदंड से अपराध कम होने का कोई वैज्ञानिक साक्ष्य नहीं है। साथ ही पिछले सालों में देश में बलात्कार की घटनाएं बढ़ी हैं! कुछ लोग तो ‘इन नौजवानों के जीने के अधिकार’ की बातें कर रहे हैं; तो कुछ लोग लोगों के खुश होने पर सवाल कर रहे हैं। पता नहीं इन प्रश्नों का क्या उत्तर दिया जाए? हालाँकि ये जश्न का नहीं वरन मौन और विचार करने का समय है।

निर्भया मामले को कोर्ट ने मृत्युदंड देते समय ‘रेयर ऑफ रेयरेस्ट’ की संज्ञा प्रदान की थी। फिर भी इन धिनौने अपराधियों की दी गई फाँसी की सजा को येन केन प्रकरेण गलत ठहराने की कोशिश हो रही है जबकि मुख्य अपराधी तथा कथित रुप से बाल अपराधी होने के कारण रिहा हो चुका है! परन्तु निर्भया के जीने के अधिकार के बारे में कोई बात नहीं कर रहा है। कुछ लोग यहाँ तक कह रहे हैं कि पूरी न्याय व्यवस्था प्रतिक्रियावादी है जो सिर्फ अपराधियों को सजा देने में लगा रहता है! कुछ ऐसे ही लोग आतंकवादियों के मानवाधिकारों की लड़ाई लड़ते दिखाई देते हैं।

इस सम्पूर्ण न्यायिक प्रक्रिया में ना सिर्फ न्याय की माँग करने वालों का मानसिक, शारीरिक एवं आर्थिक प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष शोषण होता है बल्कि बलात्कार के मामलों पीड़िता एवं उसके परिवार को सामाजिक उत्पीड़न का भी सामना करना पड़ता है। जबकि समाज और सरकार पुनर्वास पर ध्यान देना चाहिए। इसलिए आवश्यक है कि सम्पूर्ण विमर्श एवं न्याय व्यवस्था में सिर्फ सजा दिलाने पर केन्द्रित ना होकर पुनर्वास को लेकर भी गंभीर होना चाहिए।

राजीव उपाध्याय

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