भारत में सामाजिक न्याय और निर्धनता

नीति आयोग के बहुआयामी निर्धनता सूचकांक के अनुसार क्रमशः बिहार, झारखंड व उत्तर प्रदेश में देश में प्रतिशतता के आधार पर सबसे अधिक निर्धन निवास करते हैं जबकि केरल, गोवा, सिक्किम व तमिलनाडु में क्रमशः सबसे कम निर्धन निवास करते हैं। सर्वेक्षण के अनुसार बिहार के 51.91%, झारखण्ड के 42.16% व उत्तरप्रदेश के 37.79% नागरिक निर्धन हैं जबकि दूसरी ओर केरल में 0.71%, गोवा में 3.76%, सिक्किम में 3.82% व तमिलनाडु में 4.89% नागरिक निर्धन पाए गए हैं। इन आँकड़ों को देखकर लगता है कि ये आँकड़े किसी दो अलग-अलग ध्रुव के आंकड़े हैं जबकि पिछले सात दशकों में भारत सरकार ने एक ही तरह की योजनाओं को पूरे देश में लागू किया है। ये आँकड़े विभिन्न प्रदेशों में सिर्फ आय व संपति के वितरण में अन्तर ही नहीं बता रहे हैं बल्कि विकास की प्रक्रिया व क्रियान्वयन के साथ-साथ राजनैतिक व सामाजिक सोच व विमर्श के अन्तर को भी दर्शाते हैं।

बिहार, झारखण्ड व उत्तरप्रदेश उन राज्यों में प्रमुख हैं जो तथाकथित रूप से राजनैतिक व सामाजिक रूप से बहुत ही क्रियाशील हैं परन्तु इन राज्यों की प्राथमिकता में विकास शायद ही कभी रहा है। इन राज्यों में विक्रमादित्य के कंधे पर सवार बैताल तरह चुनावों में नागरिकों के कंधे पर बैठता रहा है और चुनावों के बाद पेड़ रुपी पिजड़े में जाकर बन्द हो जाता रहा है। वस्तुतः इन राज्यों के हर विमर्श में सदा ही विकास के बदले सामाजिक न्याय का स्वर ही प्रमुख रहा है। दशकों से इन राज्यों में राजनैतिक व सामाजिक गतिविधियाँ मूलतः सामाजिक न्याय के नारे इर्दगिर्द घूमती रही हैं। परन्तु विसंगति ये है कि इन राज्यों में ना ही तथाकथित सामाजिक न्याय का उद्देश्य पूरा होता दिख रहा है और ना ही विकास बहुत कुछ कर पाने में समक्ष है! ऐसा लगता है कि सामाजिक न्याय के नारे और निर्धनता व आर्थिक विषमता में जैसे कोई सकारात्मक अन्तर-संबन्ध हो!

इन राज्यों ने सदैव ही आर्थिक विकास व वित्तीय सुरक्षा के महत्त्व की अवहेलना की है जबकि इन राज्यों के नीति नियंताओं को बहुत अच्छे से पता था व है कि निर्धनता का दंश समाज, जाति व धर्म के आधार पर कम या अधिक नहीं होता है। विकास और सामाजिक न्याय साथ-साथ चलकर ही सभी को सामाजिक सुरक्षा दे समायोजी समाज का निर्माण कर सकते हैं। लेकिन संभवतः इन राज्यों के नीति नियन्ताओं ने सामाजिक सुरक्षा के नाम पर सामाजिक न्याय के सहारे नागरिकों को निर्धनता व वित्तीय असुरक्षा में जीते रहने की सीख दी है। इन राज्यों ने लगातार आर्थिक विकास, आय के स्रोतों के सुदृढ़ीकरण व आय के वितरण पर ध्यान ना देते हुए राजकोष को लघुकालिक व अनावश्यक लुभावने योजनाओं पर खर्च किया है। दुखद ये है कि धीरे-धीरे ये प्रवृत्ति अन्य राज्यों में भी घर करने लगी है और नागरिकों बिना कीमत चुकाए सुविधाओं का लाभ लेने की आदत बनती जा रही है जो लम्बी अवधि में राज्यों के राजकोष को ना सिर्फ बुरी तरह प्रभावित करेगी बल्कि अन्य संसाधनों पर भी नकारात्मक प्रभाव डालेगी।

राजीव उपाध्याय

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