कितने पथिक

मैं पथ बन
हर पल खड़ा हूँ
कितने पथिक
आए-चले गए।

कुछ देर तक ठहरे
कुछ गहरे कहीं तक उतरे
और पल में कुछ
कहानी नई कर गुजरे।
कितने पथिक
आए-चले गए॥
ठंडक सुबह की कभी
तो उमस शाम की भी
कुछ चाँदनी रातें
तो भयानक दोपहर भी
उदासियाँ और उबासियां
बदल-बदल कर लिबास अपना
वक्त संग खेलते गए
वक्त में पिघलते गए।
कितने पथिक
आए-चले गए॥

पर आज भी मैं
धूल की चादर चेहरे पर लगाए
बीच राह आकर खड़ा हूँ
और हूँ सहेजता
कि कहानी कोई
मूँडेर से बिखर ना जाए।
कितने पथिक
आए-चले गए॥
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