नमन! विनायक दामोदर सावरकर

हमने धीरे-धीरे एक ऐसा समाज बना दिया है जो आज एक बाइनरी में सोचने को मजबूर है। वो हर चीज को तेरा-मेरा के दृष्टिकोण से ही देखने का आदी हो चला है। सामाजिक विषय हो या फिर राजनैतिक, हर आदमी किसी ना किसी पक्ष में खड़ा है और उसी के हिसाब से अपने सुख और दुख, अपने लाभ और हानि और यहाँ तक की साझे इतिहास तक का उसी पैमाने पर आकलन कर रहा है। इतिहास का कौन सा चरित्र मेरा है और कौन सा तेरा है, पहले से ही तय करके बैठा है और उसी के हिसाब से उसकी संवेदनाएँ जगती हैं। पता नहीं इसे क्या कहें? उच्च राजनैतिक अवेयरनेस या वैचारिक रतौंधी?

देश का राजनैतिक विमर्श तय करने वाले विद्वानों ने बखूबी देश में विमर्श के नाम पर राजनैतिक विमर्श को कई हिस्सों में बाँट दिया है। इसे इस तरह से बाँटा है कि ऐतिहासिक चरित्र भी एक दूसरे के सामने चुनौती देते हुए खड़े हैं। इस बँटवारे में आप एक को चुनते हैं तो दूसरा आपके लिए निषेध हो जाता है। जो गाँधी को चुनेगा उसे दीनदयाल को नकारना होगा। आप नेहरू और पटेल में से किसी एक को ही चुन सकते हैं। आप या तो नेहरू के पक्ष में खड़े हैं या फिर सावरकर के। आप सवर्ण हैं तो आप अंबेडकर के विरोधी ही होंगे। यदि आपने इन सभी को या फिर एक से अधिक को समझने का प्रयास तक करते हैं तो कहा जाता है कि वैचारिक प्रतिबद्धता की कमी है।
 
विनायक दामोदर सावरकर का भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन में योगदान इतना भी कम नहीं था कि उनके योगदान को नकारा जा सके। यदि इतना ही कम योगदान होता तो अंग्रेज सरकार इन्हें दो बार आजीवन कारावास की सजा नहीं देती और ना ही काला पानी की सजा हेतु सेल्यूलर जेल भेजती। क्या दस साल की काला पानी की सजा को गलत इसलिए ठहराया जा सकता है कि सरदार वल्लभभाई पटेल और बाल गंगाधर तिलक के कहने पर उन्होंने अंग्रेजी सरकार से दया की याचना की, जबकि उद्देश्य देशसेवा ही था? नहीं ये तो अपने ही इतिहास के साथ अन्याय होगा। 

क्या इन्दिरा गाँधी जी और भारत सरकार गलत हैं कि उन्होंने इनके नाम पर टिकट जारी किया? क्या इतना ही काफी नहीं है सभी सवालों के उत्तर में? 

आपको आपके बलिदानों के लिए सादर नमन!

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