कहा जाता है भारत में रातों रात बड़ा आदमी बनने का रास्ता सामान्यतः राजनैतिक गलियारों से होकर गुजरता है। संभवतः ये पूरी दुनिया व हर काल के लिए सत्य हो। खैर। इस राजनैतिक गलियारे ने सामाजिक स्तर पर व्यक्तिगत व राजनैतिक विभेद को लगभग पूर्णतया समाप्त कर दिया है। अब हर सार्वजनिक चीज व्यक्तिगत हो चुकी है और हर व्यक्तिगत चीज सार्वजनिक बनकर राजनैतिक हो चुकी है। बाजार की बढ़ती शक्ति ने बचे-खुचे विभेद को भी इतना पारदर्शी बना दिया है कि अब वो विभेद प्रभावी रुप से संभवतः रह ही नहीं गया है और जो विभेद को देख सकते हैं उनकी होने या ना होने से किसी को बहुत फर्क नहीं पड़ता।
किसी भी समाज में तथाकथित राजनैतिक-व्यक्तिगत विवाद का हत्याओं में बदलना तथा उन हत्याओं का सामुहिक नरसंहार में बदलना किसी व्यक्ति व समाज को अन्दर तक हिला देगी परन्तु सामान्यतः पूरा भारत और विशेष रुप से कुछ राज्यों को योजनागत तरीकों से धीरे-धीरे ऐसा बना दिया गया है जहाँ ऐसी घटनाएँ सामान्य लगने लगी हैं। ये वीभत्स चित्र पश्चिम बंगाल के बीरभूम जिले के रामपुरहाट गाँव का है जहाँ पाश्विकता की सारी सीमाओं के परे जाकर आठ लोगों को जिन्दा जला दिया गया।
हालाँकि हिंसा बंगाल के लिए कोई नई बात नहीं है। कई दशकों से हिंसा वहाँ के राजनैतिक जीवन का अभिन्न अंग बना हुआ है। बीसवीं सदी के सातवें दशक के उत्तरार्द्ध में बंगाल में वाम के उदय के साथ ही माओवादी हिंसा का दौर सघन होता गया जो अंततः बंगाल के राजनैतिक-सामाजिक जीवन का अभिन्न अंग बन गया। 2011 में ममता बनर्जी के मुख्यमंत्री बनने के बाद ये उम्मीद जगी थी कि वो जिस व्यवस्था के विरुद्ध बिगुल फूँककर सत्तारुढ़ हुई उसे बदलेंगी किन्तु उन्होंने व्यवस्था बदलने के स्थान पर उसी व्यवस्था में सिर्फ लोगों को बदल पुरानी व्यवस्था को और भी मजबूत कर दिया।
अपने प्रथम कार्यकाल में ममता बनर्जी लगभग बिना किसी प्रभावी विरोध के पुरानी व्यवस्था चलाती रहीं किन्तु केन्द्र में भाजपा के उदय के बाद भाजपा के बंगाल में धीरे-धीरे उनको चुनौती देना शुरू कर दिया जो उन्हें खतरे की घंटी की तरह सुनाई दिया। उन्होंने भी कुछ ऐसी ही शुरुआत की थी। जैसे जैसे ममता बनर्जी को चुनौतियाँ मिलनी प्रारम्भ हुईं बंगाल में हिंस बढ़ने लगी और बढ़ती जा रही है और केन्द्र सरकार ने इस दौरान लगभग आँखे बन्द ही रखा है। इसी मध्य ममता बनर्जी लगातार केंद्र सरकार के प्रति ना सिर्फ आक्रामक रहीं बल्कि हर संभव मौके पर चुनौती भी देती रही हैं। संभवतः विवाद से बचने या फिर हिंसा से उपजी सहानुभूति पाने के उद्देश्य से केन्द्र की भाजपा सरकार ने इस ओर ध्यान ना देने निर्यण लिया हो। कारण जो भी हो किन्तु परिणामतः हिंसा बढ़ती ही जा रही है और सामान्य लोग इसके शिकार हो रहे हैं।
ऐसी परिस्थिति में केंद्र सरकार का उत्तरदायित्व बनता है कि वो इस पर हर हाल में नियंत्रण करे लेकिन केंद्र सरकार ने अभी वही चुप्पी ओढ़ रखी है जैसे 1989 में केंद्र सरकार ने कश्मीर के विषय में ओढ़ रखी थी। शायद केंद्र सरकार पलायन की प्रतीक्षा कर रही है तो सूचना है कि वहाँ पलायन प्रारंभ हो चुका है।
कुछ लोग जो मुलतः वाम पक्ष के हैं जो अपने सामर्थ्य का प्रयोग कर ऐसी घटनाओं को नैरेटिव व तर्कों के आधार निष्प्रभावी बनाते रहते हैं। उन्हें कभी ममता बनर्जी, तो कभी अरविन्द केजरीवाल तो कभी अखिलेश में नरेंद्र मोदी को चुनौती देने वाला नायक दिखाई देता है। तो क्या नायकों को नायक बनाने के लिए उनकी असफलताओं व गलतियों पर पर्दा डाला जाता है? साथ ही इस बात से क्या फर्क पड़ता है कि कौन सरकार में है? महत्वपूर्ण है कि ऐसी नृशंस घटनाएँ ना हों। शवों से मानव को नहीं गिद्ध को प्रेम होता है।
हालाँकि हिंसा बंगाल के लिए कोई नई बात नहीं है। कई दशकों से हिंसा वहाँ के राजनैतिक जीवन का अभिन्न अंग बना हुआ है। बीसवीं सदी के सातवें दशक के उत्तरार्द्ध में बंगाल में वाम के उदय के साथ ही माओवादी हिंसा का दौर सघन होता गया जो अंततः बंगाल के राजनैतिक-सामाजिक जीवन का अभिन्न अंग बन गया। 2011 में ममता बनर्जी के मुख्यमंत्री बनने के बाद ये उम्मीद जगी थी कि वो जिस व्यवस्था के विरुद्ध बिगुल फूँककर सत्तारुढ़ हुई उसे बदलेंगी किन्तु उन्होंने व्यवस्था बदलने के स्थान पर उसी व्यवस्था में सिर्फ लोगों को बदल पुरानी व्यवस्था को और भी मजबूत कर दिया।
अपने प्रथम कार्यकाल में ममता बनर्जी लगभग बिना किसी प्रभावी विरोध के पुरानी व्यवस्था चलाती रहीं किन्तु केन्द्र में भाजपा के उदय के बाद भाजपा के बंगाल में धीरे-धीरे उनको चुनौती देना शुरू कर दिया जो उन्हें खतरे की घंटी की तरह सुनाई दिया। उन्होंने भी कुछ ऐसी ही शुरुआत की थी। जैसे जैसे ममता बनर्जी को चुनौतियाँ मिलनी प्रारम्भ हुईं बंगाल में हिंस बढ़ने लगी और बढ़ती जा रही है और केन्द्र सरकार ने इस दौरान लगभग आँखे बन्द ही रखा है। इसी मध्य ममता बनर्जी लगातार केंद्र सरकार के प्रति ना सिर्फ आक्रामक रहीं बल्कि हर संभव मौके पर चुनौती भी देती रही हैं। संभवतः विवाद से बचने या फिर हिंसा से उपजी सहानुभूति पाने के उद्देश्य से केन्द्र की भाजपा सरकार ने इस ओर ध्यान ना देने निर्यण लिया हो। कारण जो भी हो किन्तु परिणामतः हिंसा बढ़ती ही जा रही है और सामान्य लोग इसके शिकार हो रहे हैं।
ऐसी परिस्थिति में केंद्र सरकार का उत्तरदायित्व बनता है कि वो इस पर हर हाल में नियंत्रण करे लेकिन केंद्र सरकार ने अभी वही चुप्पी ओढ़ रखी है जैसे 1989 में केंद्र सरकार ने कश्मीर के विषय में ओढ़ रखी थी। शायद केंद्र सरकार पलायन की प्रतीक्षा कर रही है तो सूचना है कि वहाँ पलायन प्रारंभ हो चुका है।
कुछ लोग जो मुलतः वाम पक्ष के हैं जो अपने सामर्थ्य का प्रयोग कर ऐसी घटनाओं को नैरेटिव व तर्कों के आधार निष्प्रभावी बनाते रहते हैं। उन्हें कभी ममता बनर्जी, तो कभी अरविन्द केजरीवाल तो कभी अखिलेश में नरेंद्र मोदी को चुनौती देने वाला नायक दिखाई देता है। तो क्या नायकों को नायक बनाने के लिए उनकी असफलताओं व गलतियों पर पर्दा डाला जाता है? साथ ही इस बात से क्या फर्क पड़ता है कि कौन सरकार में है? महत्वपूर्ण है कि ऐसी नृशंस घटनाएँ ना हों। शवों से मानव को नहीं गिद्ध को प्रेम होता है।
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