आज जिसे देखो वही सनातन पर ज्ञान देने लगता है। इतना ही नहीं बाकी मजहबों से सनातन की तुलना करते हुए जाने कितने ही तर्क देता है। खैर जो तुलना करते हैं और सभी धर्मों, मजहबों व पंथों को एक जैसा और समान बताते हैं उनके लिए नीचे की पक्तियों में कुछ मजहबों व सनातन धर्म की शिक्षा वर्णित है
“जो ईसाई नहीं हैं वो वंचित हैं। गैर-ईसाई, चाहे वह व्यक्ति कितना भी नेक इंसान क्यों न हो, मृत्युपरांत नर्क का ही भागी होगा। नर्क से बचने के लिए उसके पास सिर्फ एक ही उपाय है और वह यह कि वह व्यक्ति ईसाई स्वीकार कर स्वर्ग का भागी बने।”
“इस कायनात में एकमात्र मसीहा पैगंबर मोहम्मद साहब हैं। जो मुसलमान नहीं है वह काफिर है और काफिर वाजिब-उल कत्ल है। जब पवित्र महीने बीत जाऐं, तो ‘मुश्रिकों’ (मूर्तिपूजकों) को जहाँ कहीं पाओ कत्ल करो।”
- कुरान
"एकं सत् विप्रा: बहुधा वदंति। यानी सत्य एक है। विद्वान उसकी अलग-अलग व्याख्या करते हैं।”
- ऋग्वेद
"सभी प्राणी चाहे वो छोटे हों या बड़े, मेरे लिए समान हैं। मैं किसी से घृणा नहीं करता और सभी मुझे प्रिय हैं।”
- श्रीकृष्ण, श्रीमद् भगवत गीता
सनातन में आपको नास्तिक बने रहने की विलासिता उपलब्ध है। आप नास्तिक रहते हुए भी सनातन के बने रहते हैं। आप सनातन माने या ना माने; चाहें आप ईश्वर की सत्ता को अस्वीकार कर दें, फिर भी आप उसी एक ईश्वर के सन्तान हैं और किसी में कोई भेद नहीं है। आपके विचारों या पूजा पद्धति के आधार पर किसी को कोई लाभ या हानि नहीं मिल सकता। वरन आपका जीवनमूल्य और कर्म तय करेगा कि आपको जीवन में क्या मिलेगा? आपका जीवन आपका कर्मफल मात्र है!
लेकिन किसी अन्य धर्म या मजहब में आप या तो धर्म या मजहब के अनुयायी हैं या नहीं हैं! यदि आप अनुयायी नहीं है तो आप विरोधी हैं या फिर आपको विरोधी मान लिया जाएगा। असहमति का कोई स्थान नहीं है। जब तक आप उस विचार को अनुसरण कर रहे हैं तब तक आपको उसका संभावित नोशनल लाभ मिलता रहेगा! और जैसे ही आपने उस विचार को अस्वीकार करते हैं या किसी नए विचार से प्रभावित हो जाते हैं, आपको सभी प्रकार का तथाकथित नोशनल लाभ मिलना बन्द हो जाएगा!
क्या धर्म या मजहब कोई राजनैतिक दल है कि लाभ सिर्फ समर्थकों को ही मिलेगा? और बाकी जो समर्थन में नहीं हैं वे इन लाभों से वंचित रहेंगे!
क्या ईश्वर एक सार्वभौमिक सत्ता ना होकर मात्र एक सामूहिक विचारधारा भर है जो सिर्फ आस्था से पोषित होता है?
शेष आप विचार करें कि सनातन धर्म की अन्य मजहबों व पन्थों से तुलना और बराबरी कितना उचित है?
राजीव उपाध्याय
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