वे चुप क्यों हैं?

9 जून को जम्मू के रियासी में आतंकवादियों ने वैष्णोदेवी जा रही बस में बैठे तीर्थयात्रियों पर हमला कर 10 तीर्थयात्रियों की जघन्य हत्या और दर्जनों लोगों को घायल कर दिया। इन आतंकवादियों के मन में इन तीर्थयात्रियों के प्रति इतनी घृणा थी कि बस के खाई में गिर जाने के बाद भी उस पर देर तक गोलियाँ चलाते रहे ताकि यदि किसी के बचने की संभावना हो तो उसे भी समाप्त किया जा सके!

यह निश्चित रूप से प्रशासन, सेना और सरकार की असफलता है कि वे समय रहते इन घटनाओं को होने से रोक नहीं पाए। ये सरकारी तंत्र का उत्तरदायित्व है कि वो ऐसे हर संभावित हमले को रोके। इसके लिए सरकार से प्रश्न पूछा ही जाना चाहिए। अचानक जम्मू और कश्मीर में ऐसा कौन सा परिवर्तन हो गया है कि पिछले कुछ महीने से लगातार जम्मू-कश्मीर में चारों ओर हमले होने लगे हैं? क्या आतंकवादियों ने उस सुरक्षातंत्र को तोड़कर पुनः उसमें घुस गए हैं जिसे धारा 370 के बाद खड़ा किया गया था? या पिछले महीने में बढ़ी आतंकवादी घटनाएं कश्मीर संभाग में बढ़े मतदान प्रतिशत की प्रतिक्रिया में है? यदि ऐसा भी है तो भी सुरक्षातंत्र आतंकवादियों ने भेद लिया है क्योंकि ऐसे हमले अचानक नहीं हो सकते और वो भी पाकिस्तानी आतंकवादियों के द्वारा!

सरकार और सुरक्षा प्रतिष्ठानों को जो करना है वे करेंगे। किन्तु मुझे हैरानी हो रही प्रगतिशील लोगों की चुप्पियों को देखकर। कहीं कोई भी प्रगतिशील जम्मू के रियासी में मरे तीर्थयात्रियों के प्रति कोई संवेदना व्यक्त नहीं कर रहा है! ना ही कहीं कोई कैंडल लाइट मार्च हो रहा है! ना ही कहीं इन तीर्थयात्रियों के समर्थन में कहीं कोई धरना या प्रदर्शन ही हो रहा है!

आखिरकार उन क्रान्तिकारी लोगों को क्या हो गया है कि वे इतनी शान्ति से कोल्ड-ड्रिंक और ग्रिल्ड सैंडविच खा रहे हैं! कोई भी इनके लिए ना तो रो रहा है; ना ही किसी को पीड़ा हो रही है। सारे क्रान्तिकारी जाने कहाँ खो गए हैं? यहाँ तक बॉलीवुड के क्रान्तिकारी अभिनेता-अभिनेत्री व अन्य कलाकार भी नजर नहीं आ रहे हैं। किसी ने कोई ट्वीव नहीं किया अभी तक जब कि ये सभी कुछ दिन पहले 'ऑल आइस ऑन राफह' का रोना रो रहे थे। फिलिस्तीन के लोगों के कष्ट को देखकर इनका हृदय फट पड़ा था! जिनकी आँखे फिलिस्तीन तक पहुँच जाती हैं उनकी दिव्य आँखों को अपने ही देश के भारतीय नागरिक व उनकी पीड़ा नहीं दिखाई दे रही है!

क्या जो लोग कहते हैं कि बॉलीवुड के क्रान्तिकारी मूलतः अन्धे हैं और उनकी आँखे सिर्फ पैसे से खुलती है, यह आरोप सही है?

क्या ये तीर्थयात्री मानव नहीं है कि इनका मरना ना तो किसी को दिखाई दे रहा है और ना ही कोई प्रतिक्रिया आ रही है? चारों ओर शान्ति क्यों है? क्या इन मरने वाले तीर्थयात्रियों धर्म इतना महत्त्वपूर्ण नहीं है कि इनके लिए मुँह से दुख का एक शब्द भी निकल सके? या कहीं कुछ ऐसा है जिससे किसी को भी पुरी दुनिया में फैला इस्लामिक आतंकवाद और उसका विनाश नहीं दिखता है लेकिन अतिवादियों का दुनिया पर कब्जे लिए किया गया रोने का हर नाटक दिख जाता है?

कुछ तो विशेष है ही!!

जम्मू में मासूम लोगों की मृत्यु पर एक भी शब्द नहीं निकला लेकिन गाज़ा को देखकर जाने कितने ही लोगों का दिल धक-धक धड़कता रहता है! जाने कितने ही पत्रकार हैं जिनका दिल गाजा को देखकर रोता रहता है और वे दिन-रात गाजा-गाजा कर रोते रहते हैं और गाजा के निवासियों का आतंकवाद का खुले समर्थन को छुपाने के लिए कहानी गढ़ते रहते हैं! माना कि फर्जी पत्रकारिता के कुछ तो ईमानी उसूल होते ही हैं। लेकिन इतना ईमानी कि रवीश कुमार ने रियासी के लेकर एक भी शब्द नहीं कह सके और गाजा का वीडियो ट्विटर पर घूमा रहे हैं!

इसी दोगले व्यवहार के कारण जब एक सामान्य नागरिक इन फर्जी लोगों से इन्ही कठिन विषयों पर प्रश्न पूछते हैं तो वे उन्हें ट्रोल कहकर पल्ला झाड़ लेते हैं!

वैसे ट्रोल शब्द का आविष्कार इन्हीं फर्जी लोगों ने अपनी सुविधा के लिए किया है!

राजीव उपाध्याय

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