अक्सर लेखक लोग अकादमियों और मंत्रालय के अधिकारियों को कोसते रहते हैं कि क्यों लेखक को जीते जी सम्मान नहीं देते हैं वो। लेखक के मरने के बाद ही क्यों उसे सम्मान मिलता है। मैंने अक्सर देखा है कि गलती तो इन शरीफ लोगों की होती है। पर ये शब्दों के खिलाडी दूसरों पर दोषारोपण करते रहते हैं। ये बेचारे सचिव इत्यादि अधिकारियों की चमडी मोटी होती है कि उन पर कोई बुरा असर नहीं पडता नहीं तो कोई सामान्य जन (आम आदमी नहीं कह सकता) होता तो कब का इति श्री रेवा खण्डे समाप्तः हो चुका होता।
होता यूँ है कि अधिकारीगण तो इन्तजार करते रहते हैं कि कब लेखक कवि महोदय आकर सलाम करें, कुछ चिकनी चुपडी कविता कहानी उनके प्रशंसा में लिखे। पर लेखक जाते ही नहीं (जो जाते हैं उनके घर सम्मान रखने जगह ही नहीं रह जाती) और वो इन्तज़ार करते रह जाते हैं कि अब आएंगे कि तब आएंगे। कई बार तो खबर भी भिजवाते हैं। उलाहना भी देते हैं। पर भाई लेखक तो ठहरा लेखक। धुन का पक्का। नहीं जाएंगे तो नहीं जाएंगे औरी अधिकारी भी जिद्दी। बस इसी रस्साकशी में लेखक महोदय कभी बिना तो कभी खुब खाकर निकल लेते हैं। तब बेचारा अधिकारी बडा दुखी होता है। सोचता है कि का बेवजह ही लेखक महोदय के साथ फोटो खींचवाने का मौका से निकल गया। और ये सोचकर लेखक महोदय की इज्जत अफजाई कि सोचता है कि उधर लेखक महोदय का भूत जो कभी पुरस्कार के पीछे भागे नहीं पुरस्कार पाने के लिए बेचैन हो ऊठता है और वो भूत रोज सपनों में तो कभी रास्ते पर तो कभी गाड़ी में अधिकारी महोदय को डराने लगता है। और बेचार आतंकित अधिकारी हारकर लेखक महोदय की प्रतिमा पर फूल चढाकर उनकी आत्मा की शान्ति के लिए प्रार्थना करने के लिए मजबूर हो जाता है। चापलूसी करने की आदत होती है अधिकारी तो लेखक के भूत की जम के बडाई करता और लेखक महोदय की आत्मा तृप्त होती है और वो ये इहलोक छोड़ कर परम धाम को चले जाते हैं। इस तरह अधिकारी बेचारे को शान्ति मिलती है कुछ दिनों के लिए क्योंकि थोडे दिनों दुसरा धुनी लेखक भी मर जाता है औरी अधिकारी के प्रताडना क्रम चलता रहता है फिर भी अधिकारी को ही ये लेखक दोषी ठहराते हैं जबकि हैं स्वयं दोषी। वैसे भी साहित्य में परम्परा है कि जो लेखक जीते जी इज्जतदार हो जाता है वह बाजारू कहलाता है और कभी-कभी दला……(?)
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