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यक्ष प्रश्न

यक्षः पुत्र! वर माँगो। क्या चाहिए तुम्हें? मैं तुम्हारी सारी मनोकामना पूर्ण करूँगा।

पेट्रोलः हे देव! मेरी बस एक ही इच्छा है कि इस राज्य में सदैव ही चुनाव होता रहे।

यक्षः क्यों पुत्र? ऐसा क्यों चाहते हो? चुनाव के कारण राज्य का समस्त क्रिया-कलाप ठप्प हो जाता है जो उचित नहीं है।

पेट्रोलः जब तक इस राज्य में चुनाव रहता है मेरा मूल्य स्थिर रहता है जिस कारण लोगों का मुझ पर प्रेम बना रहता है। आप तो जानते ही हैं कि प्रेम ही सबसे बड़ा सत्य व सनातन भाव है।

बच्चा का गच्चा

'बच्चा ने चच्चा को गच्चा दिया।'


प्रश्नः इस छंद में किस अलंकार व रस का प्रयोग हुआ है? व्याख्या सहित समझें।

नोटः हिन्दी के मॉट सा'ब लोग! आपको आपके क्लासरूम की कसम यदि कोई भाषाई त्रुटि हुई तो भूल-चूक माफ करते हुए सुधार कर पढ़ने की स्वंय पर कृपा करें।

विनीत
प्रश्नपत्र का सेटर

फ्रैक्चर, प्लॉस्टर और चुनाव

फ्रैक्चर, प्लॉस्टर और चुनाव Election
अभी मैं उहापोह की स्थिति में पेंडुलम की तरह डोल ही रहा था कि चच्चा हाँफते हुए कहीं चले जा रहे थे। देखकर लगा कि चिढ़े हुए हैं। जैसे उन्होंने कोई भदइला आम जेठ के महीने में खा लिए हों और जहर की तरह दाँत से ज्यादा मन एकदम ही खट्टा हो गया हो। जब मैंने उनकी गाड़ी को अपने स्टेशन पर रुकते नहीं देखा तो मैंने चच्चा को जोर से हॉर्न देते हुए बोला,

‘अरे चच्चा! कहाँ रफ्फू-चक्कर हुए फिर रहे हैं। पैर की चकरघिरन्नी को थोड़ी देर के लिए मेरे स्टॉप पर रोकिए तो सही! क्या पता कोई सवारी ही मिल जाए?’

चच्चा पहले तो गच्चा खा गए कि बोला किसने लेकिन जैसे ही उनकी याददाश्त वापस लौटी तो खखार कर बोले, ‘तुम हो बच्चा! मैं समझा कि कोई और बोल रहा है?’

कुछ टपकते हुए आधुनिक प्रमेय

अद्यतन एक बहुत सुखकर प्रक्रिया है। खासकर बुढ़े बुजुर्गों के लिए। भारत एक पुरानी सभ्यता है तो यहाँ सब कुछ ही बहुत पुराना हो गया है। मतलब बुर्जुआ टाइप का! इसलिए इस विषम समय में भारत को अपडेट करते रहना भी एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण कार्य है। समय की घिसावट से कुछ नए आधुनिक प्रमेय लार की तरह टपकते ही रहते हैं और उन प्रमेयों को स्पष्ट करते ही रहना चाहिए। तो इस प्रयोजन हेतु कुछ टपकते हुए आधुनिक प्रमेय:

1. एक अकेला क्रांतिकारी सात लठैतों के बराबर होता है। अतः अपनी सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए कम से कम आठ की संख्या में ही अप्रोच करें। - सूत्र 15/100 करोड़ वाया वारिस पठान

चोलबे ना

चच्चा खीस से एकमुस्त लाल-पीला हो भुनभुनाए जा रहे थे मगर बोल कुछ भी नहीं रहे थे। मतलब एकदम चुप्प! बहुत देर तक उनका भ्रमर गान सुनने के बाद जब मेरे अन्दर का कीड़ा कुलबुलाने लगा। अन्त में वो अदभुत परन्तु सुदर्शन कीड़ा थककर बाहर निकल ही पड़ा।

‘चच्चा! कुछ बोलोगे भी कि बस गाते ही रहोगे? मेरे कान में शहनाई बजने लगी है; पकड़कर शादी करा दूँगा आपकी अब!’

चच्चा हैरान होकर मेरी तरफ देखने लगे। जब मैंने एक बुद्धिजीवी की तरह प्रश्नात्मक मुद्रा में उनकी ओर देखा तो वो पूछे

‘मतलब तुमने सुन ही लिया जो मैं बोल रहा था?’

मैंने वापसी की बस पकड़कर बोला, ‘आपकी चीख सुनाई नहीं दी; बस सूँघा हूँ! अब बोल भी दीजिए नहीं तो बदहजमी हो जाएगी’

राम को आईएसआई मार्का

राम को आईएसआई मार्का Ram Satireइस बार के दशहरा में वो हुआ जो कभी भी नहीं हुआ था। जिसका सपना लोग सत्तर साल से देख रहे थे वो इस बार ‘पहली बार’ हो ही गया। कहने का मतलब है कि कई सौ साल पर लगने वाले सूर्य और चन्द्र ग्रहण की तरह। हजारों सालों में पहली बार आनेवाली दैवीय मूहुर्त की दीपावली की रात की तरह। ये सब कुछ इस तरह से चमत्कारी तरीके से हुआ कि चमत्कार ने अपनी परिभाषा बदल ली है और हैरानी ने हैरान होने का पैमाना। इस बार के दशहरा अलकायदा के बम ब्लॉस्ट की तरह था जिसने भारत के संस्कृति और इतिहास का कायाकल्प ही कर के रख दिया है। इस सब को देखकर मूँगेरीलाल तक हैरान और परेशान हो सदमे में चले गए हैं कि उनके हसीन सपनों के पँख इतने कमजोर थे! खैर लाल बुझक्कड़ का समाचार इस तरह से है।

चुनावी चक्कलस का मंत्र

सुबह सुबह की बात है (कहने का मन तो था कि कहूँ कि बहुत पहले की बात है मतलब बहुत पहले की परन्तु सच ये है कि आज शाम की ही बात है)। मैं अपनी रौ में सीटी बजाता टहल रहा था। टहल क्या रहा था बल्कि पिताजी से नजर बचाकर समय घोंटते हुए मटरगश्ती कर रहा था (इसका चना-मटर से कोई संबंध नहीं है परन्तु आप भाषाई एवं साहित्यिक स्तर पर कल्पना करने को स्वतंत्र हैं। शायद कोई अलंकार या रस ही हो जिससे मैं परिचित ना होऊँ और अनजाने में मेरे सबसे बड़े साहित्यिक योगदान को मान्यता मिलते-मिलते रह जाए)। तभी मेरी नजर चच्चा पर पड़ी जो एक हाथ में धोती का एक कोन पकड़े तेज रफ्तार में चले जा रहे थे जैसे कि दिल्ली की राजधानी एक्सप्रेस पकड़नी हो! मैंने भी ना आव देखा ना ताव; धड़ दे मारी आवाज, 

रवीश भाई, कन्हैया और मेरा सपना

कल रवीश भाई सपने में आए थे और कहने लगे, ‘वत्स उठो, जागो, कन्हैया को गरीब मानो और जब तक सभी उसे गरीब ना मान लें तब तक सबको मनाते रहो।’ 

मैं ठहरा मोटी बुद्धि का आदमी और वो भी नवाज शरीफ के देहाती औरत के जैसा। मगज में कुछ घुसा ही नहीं तो समझ कहाँ से आता। पहले तो यकीन ही नहीं हुआ मगर रवीश भाई तो साक्षात सामने खड़े मुस्करा रहे थे। झक मार कर यकीन हो चला तो मैंने सिर खुजलाते हुए पूछ मारा, ‘खैर ऊ तो ठीक है भाईजान! हम मजूर आदमी हैं आप जो कहेंगे सब करेंगे परन्तु मन में कुछ सवाल है।’ 

भारत एक अजायबघर

हम सभी भारत नामक अजायबघर में रहते हैं। इस अजायबघर में इस अजायबघर के लिए जान देने वालों की कीमत कुछ भी नहीं। चाहे वो मरने वाले सी आर पी एफ के जवान हों या सरहदों पर जान देने वाले वीर सैनिक (हो सकता है वो कायर भी हों। जांच की आवश्यकता है। संसद की कोई समिति बनानी चाहिए।)। इस अजायबघर की विद्वान जनता इन्हें मूर्ख मानती है और ये पगले इस अजायबघर के लिए पागल होकर जान तक दे देते हैं। ओह मैं तो भूल ही गया कि ये होते ही हैं मरने के लिए। अच्छा ही है कि कुछ तो वेतन के कर्ज से मुक्त हो पाते हैं वरना इन्हे भी औरों की तरह नर्क और दोखज में जाने किन-किन यातनाओं से होकर गुजरना पड़ता।
समझदार तो वे लोग हैं जो इस मिट्टी की खाकर इस मिट्टी को गाली देते हैं वो भी पुरी कीमत लेकर; जो इस मिट्टी की मिट्टीपलीद कर देना चाहते हैं। महान तो वे क्रांतिकारी हैं जो इस मिट्टी पर लहु का दरिया बहाना जानते हैं और कोर्ट से सजा मिलने पर इस देश का नायक बन जाते हैं। अमर शहीद तो वे हैं जिनके लिए ये देश ना तो माता है ना ही मादरेवतन है और ना ही मदरलैण्ड। उनके लिए ये तो बस एक मिट्टी का टुकड़ा मात्र है जो इनके पैरों के नीचे रौंदा जाना चाहिए तभी इनको इस देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का एहसास होता है।
ये अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी इन्ही विद्वानों कि तरह होनी चाहिए जो सिर्फ इनकी पक्षधारी हो। जो तर्क करने वाले को फासीवादी या किसी अन्य अपमानजनक नाम से पुकारती हो। जो एकतरफा निर्णय सुनाती हो। जिसे दरबार में सुनवाई होने से पहले उसकी जाति, धर्म और विचारधारा के बारे साफ-साफ बताया जाना आवश्यक हो ताकि फैसला अपने हक में सुना सके कि लोकतंत्र को बचाया जा सके। और लोकतंत्र ऐसा जिसमें जीने और सांस लेने का अधिकार सिर्फ और सिर्फ इन महान विद्वानों और विचारकों के पास हो और बाकी सभी इनके लिए बस कुछ मुद्दे बनकर हाशिए पर जीते रहें और इनको जीने के लिए आवश्यक ईंधन मुहैया कराते रहें और जैसे ही मूर्खों में से कोई भी सवाल करें इनकी गुरिल्ला अदालतें और फौजें मूर्खों को उनके घाट उतार सकें। जी हाँ कुछ ऐसा ही लोकतंत्र चाहते हैं जो बराबरी के नाम कुछ लोग विशेष अधिकार एवं सुविधाएं निर्वाध रुप से प्रदान करता हो।
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गाली ही आशीर्वाद है

मुझे भाषण देने की आदत जो है कि लोग देखा नहीं कि बस उड़ेलना शुरू कर देता हूँ। बस कुछ दोस्त मिल गये तो मैं लग गया झाड़ने। खैर झाड़ते वक्त ये देख लेता हूँ कि सामने कौन है। खैर दोस्तों को भाषण पान करा रहा था (वैसे घर पर तो घरवीर बनने में यकीन रखता हूँ। अपना-अपना किस्सा है।) कि चच्चा जाने कहाँ से अवतरित हो गये? शायद थोड़ी देर मेरे महाज्ञान को सुना होगा फिर कान पकड़कर बोले -
“मतलब कर दिये ना नाजियों वाली बात। अरे भाई उन लोगों ने पुरस्कार लौटाने की घोषणा कर दी इसका मतलब ये थोड़े ही होता है कि वो पुरस्कार लौटा दें? बोलो तुम अपने माँ-बाप को बचपन में डराते थे कि नहीं अपनी बात मनवाने के लिए।”
चच्चा हमारे पूरे धर्मनिरपेक्ष पुरस्कृत महाविद्वान हैं। खैर हैं तो हैं; हमें क्या? हम भी कम विद्वान थोड़े ही हैं। तो मैंने भी दोस्तों को आँख मारते हुए (बहुत रियाज किया है) अपनी गांडीव से तीर फेंका
“अरे! हम तो पहले रोते थे जब माँ बाबूजी नहीं मानते थे तब डराने के लिए कुदते-फांदते थे तब कहीं जाकर हडताल पर जाते थे। ये तो ना ही रोए, ना ही कूदे-फाँदे और हड़ताल भी नहीं किए। सीधे तलाक पर पहुंच गये। ऐसे कहाँ मजा आता है? थोड़ा मसाला पकना चाहिए ना तभी तो सब्जी का मजा आता है। खैर आपकी तो बहुत ऊंची पकड़ है, इनको थोड़ा समझाइये।”
चच्चा मन थोड़ा कर बोले, “अरे क्या समझाएँ बबुआ उनको? समझा रहे हैं तो सब गाली दे रहे हैं। कुछ तो निठल्ले आरोप भी लगा रहें। एक हम थे कि उनके लिए दिन-रात सेटिंग करते-फिरते थे और एक वो हैं कि ………”
विद्वान लोग अक्सर बातें बीच में छोड़ देते हैं ताकि कल्पनाओं को उड़ान मिल सके और बाद में उन कल्पनाओं को लेकर बयानबाजी और विमर्श के लिए पर्याप्त स्वतंत्रता मिल सके।
मैंने भी सोचा कुछ ज्ञानार्जन किया जाए तो पूछ बैठा, “अच्छा! आप माँ-बाप की बात कर रहे थे तो पहले ये बताइए कि सरकार मां-बाप होती है क्या?”
इतना सुनना था कि झन्ना गए फूलही थरिया की तरह पर कहे बड़े प्यार जैसे प्रेयसी कहती है, “लगता है पूरा गोबर ही रह गये।”
मैं भी गली मैं जैसे सीटी बजाया करता था वैसे पूछे “क्या हुआ? काँहे गुस्सा हो रहे हैं?”
मेरा लहजा और सवाल सुनकर चच्चा पहले मुस्कराए। फिर आसमान में देखते हुए बोले, “तुम सरकार को माँ-बाप समझ रहे हो इसीलिए तो गोबर कह रहा हूँ। सरकार माँ-बाप से भी बढकर होती होती है। वो तो…………”
बीच में ही चुप हो गये और कुछ जैसे याद कर रहे हों इस मुद्रा में चले गये। पर मेरे अन्दर का विद्वान विमर्श प्रारम्भ करने के बाद चुप कैसे रह सकता था,
“अच्छा!!! वो कैसे?”
“भइया तुम रहने दो; तुम्हारी समझ ना आयेगा”, चच्चा दार्शनिक अंदाज में बोले।
“पर लोग तो ब्याज भी माँग रहे हैं और सब लाभ और लागत की भी बात कर रहे हैं ब्याज सहित।”
चच्चा पहले तो कुछ देर चुप रहे फिर उनके अंदर का साधुत्व जागा, “तुम ही बताओ ये कहां का न्याय है कि साधू-संतों से उनका मठ छीन तो रहे ही हैं लोग; मड़ई भी छीनेंगे क्या? अरे भई साधू-सवाधू-जोगी का तो गाली ही आशीर्वाद होता है। तुम समझते नहीं हो!!”
बस चच्चा भी चुप और मैं भी ज्ञानवान हो गया। 

महान याकूब मेमन की बेगुनाही

सुना है कि इस देश के विद्वान बहुत नाराज हैं। नाराज होने कि बात है ही। होना ही चाहिए। बताइए याकूब मेमन को फाँसी देने की बात कर रहे हैं लोग। कितने असहिष्णु लोग हैं इस देश के और कोर्ट भी कितनी निगोड़ी है! बताओ इतने महान काम करने के लिए कोई कोर्ट किसी को फाँसी की सजा दे सकती है।महान याकूब मेमन ने तो बस मासूमियत से बम्बई में बम ही तो फोड़ने का काम किया किया है। कुछ गलत तो किया नहीं है। क्या इस आदमी को इस देश संविधान अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं देता? भाई याकूब तो अपने मन की बात ही तो कर रहा था बम फोड़कर। लगता है इस देश के लोगों के अन्दर संविधान को समझने की क्षमता ही नहीं रह गई है! कितने भाव विहीन हो गए हैं। 

इज्जतदार लेखक

अक्सर लेखक लोग अकादमियों और मंत्रालय के अधिकारियों को कोसते रहते हैं कि क्यों लेखक को जीते जी सम्मान नहीं देते हैं वो। लेखक के मरने के बाद ही क्यों उसे सम्मान मिलता है। मैंने अक्सर देखा है कि गलती तो इन शरीफ लोगों की होती है। पर ये शब्दों के खिलाडी दूसरों पर दोषारोपण करते रहते हैं। ये बेचारे सचिव इत्यादि अधिकारियों की चमडी मोटी होती है कि उन पर कोई बुरा असर नहीं पडता नहीं तो कोई सामान्य जन (आम आदमी नहीं कह सकता) होता तो कब का इति श्री रेवा खण्डे समाप्तः हो चुका होता।
होता यूँ है कि अधिकारीगण तो इन्तजार करते रहते हैं कि कब लेखक कवि महोदय आकर सलाम करें, कुछ चिकनी चुपडी कविता कहानी उनके प्रशंसा में लिखे। पर लेखक जाते ही नहीं (जो जाते हैं उनके घर सम्मान रखने जगह ही नहीं रह जाती) और वो इन्तज़ार करते रह जाते हैं कि अब आएंगे कि तब आएंगे। कई बार तो खबर भी भिजवाते हैं। उलाहना भी देते हैं। पर भाई लेखक तो ठहरा लेखक। धुन का पक्का। नहीं जाएंगे तो नहीं जाएंगे औरी अधिकारी भी जिद्दी। बस इसी रस्साकशी में लेखक महोदय कभी बिना तो कभी खुब खाकर निकल लेते हैं। तब बेचारा अधिकारी बडा दुखी होता है। सोचता है कि का बेवजह ही लेखक महोदय के साथ फोटो खींचवाने का मौका से निकल गया। और ये सोचकर लेखक महोदय की इज्जत अफजाई कि सोचता है कि उधर लेखक महोदय का भूत जो कभी पुरस्कार के पीछे भागे नहीं पुरस्कार पाने के लिए बेचैन हो ऊठता है और वो भूत रोज सपनों में तो कभी रास्ते पर तो कभी गाड़ी में अधिकारी महोदय को डराने लगता है। और बेचार आतंकित अधिकारी हारकर लेखक महोदय की प्रतिमा पर फूल चढाकर उनकी आत्मा की शान्ति के लिए प्रार्थना करने के लिए मजबूर हो जाता है। चापलूसी करने की आदत होती है अधिकारी तो लेखक के भूत की जम के बडाई करता और लेखक महोदय की आत्मा तृप्त होती है और वो ये इहलोक छोड़ कर परम धाम को चले जाते हैं। इस तरह अधिकारी बेचारे को शान्ति मिलती है कुछ दिनों के लिए क्योंकि थोडे दिनों दुसरा धुनी लेखक भी मर जाता है औरी अधिकारी के प्रताडना क्रम चलता रहता है फिर भी अधिकारी को ही ये लेखक दोषी ठहराते हैं जबकि हैं स्वयं दोषी। वैसे भी साहित्य में परम्परा है कि जो लेखक जीते जी इज्जतदार हो जाता है वह बाजारू कहलाता है और कभी-कभी दला……(?)

कोटि कोटि नमन कि आज हम आज़ाद हैं

आज शहीद-ए-आज़म भगत सिंह जी के शहादत पर कुछ महत्त्वपूर्ण उपलब्धियाँ रहीं हैं इस राष्ट्र की, इस समाज की। आज विद्वतजनों ने बहुत सारी पुरानी पड़ चुकीं परिभाषाओं एवं विमर्श के झाड़-फोछकर नये युग की नयी आवश्यकताओं के हिसाब से परिभाषित कर दिया है। उनके अथक प्रयासों के फलस्वरूप नास्तिकता, आस्तिकता, राष्ट्रवाद, जाति, धर्मनिरपेक्षता एवं सामाजिक समरसता जैसे महत्त्वपूर्ण विषयों पर बेहद ऊँचे दर्जे का ज्ञान संवर्धन हुआ है (वैसे कुछ समय पहले तक इनके लिए आस्तिकता, राष्ट्रवाद और जाति जैसे जुमले बजबजाती नाली से निकलते दुर्गंध के समान हुआ करता था)। यह पुरा राष्ट्र उनका आभारी है और साहित्य एवं विमर्श का तो पुनर्जन्म ही हो गया। वैसे भी तकरीबन पिछले सौ सालों से इन्होंने साहित्य के लिए बहुत कुछ किया है विचारधारा के तिनके के सहारे इस संसार के बड़वानल में। आपका शौर्य एवं पराक्रम देखकर शहीद-ए-आज़म भी उपर वाले को धन्यवाद कहते होंगे कि हे भगवन! (माफी चाहता हूँ। आप तो नास्तिक थे) अच्छा किया जो इन महावीरों के युग में पैदा नहीं किया नहीं तो हमें प्रमाणपत्र देने के लिए ये जाने क्या-क्या हमसे करवाते।
कोटि कोटि नमन आप सभी को कि आज हम आज़ाद हैं।

बुद्धिजीवी का विमर्श

लोगों को (मुख्य रूप से बुद्धिजीवियों को) ये कहते हुए अक्सर सुनता हूँ कि वक्त बहुत खराब हो गया है। विमर्श के लिए कोई जगह शेष नहीं बची है। संक्रमण काल है। गुजरे जमाने को तो नहीं जानता पर जरुर 12 -15 साल से इन महान विचारकों और बुद्धिजीवियों को देख और पढ़ रहा हूँ। वैसे मेरे पिता श्री इनको बुद्धि-पशु कहना ज्यादा उचित मानते हैं। इन्होंने विमर्श के नाम पर एक दूसरे की या तो बड़ाई की है (प्रगतिशील भाषा में खुजलाना कहते हैं) या फिर पुरी ताकत लगाई उसे गलत और पद दलित बनाने में और इस दौरान अगर किसी ने गलती से विमर्श के विषय में चर्चा मात्र भी किया है तो एकजुट होकर झट से उसको समेटने में लग गये हैं। अगर सामने वाला उनकी तथा कथित महान विचारधारा का नहीं है (जो अक्सर वामपन्थ के नाम से जाना जाता था, अब तो खैर वाम पन्थ फैशन मात्र है जो अक्सर पेज थ्री की पार्टियों में ही दिखाई देता है) तो उसका चरित्र हनन करने में थोड़ा भी हिचकते नहीं हैं। क्या विमर्श में विरोधी विचार धारा के लिए स्थान नहीं होता है? अगर नहीं तो विमर्श किस बात का? क्या सिर्फ इस बात का कि तुम्हारे शर्ट के अच्छा मेरा कुरता है? क्योंकि ये आम आदमी, नहीं क्षमा चाहता हूँ अब तो आम आदमी पर आम आदमी पार्टी का कापीराइट है तो सामान्य जन का पहनावा है। सामान्य जन कहने में भी खतरा है दक्षिणपन्थी कहलाने का। खैर आज विमर्श कुछ इस तरह से होता है कि एक बुद्धिजीवी दूसरे बुद्धिजीवी से कहता है –
“बेवकूफों के शहर में क्यों रहता है
खुद को बेवकूफ क्यों समझता है?
पलट कर देख जमाना सारा चोर है
बस तू ही अकेला मूँहजोर है।”
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राजीव उपाध्याय

आपका एक आराधक (वही 90 फीसद मूर्खों वाला)

हे! पक्ष-विपक्ष के देवतागण अगर संभव तो आप सभी देवासूर संग्राम के इस धर्मयुद्ध को बन्दकर इस तुच्छ राष्ट्र के बारे में सोचिए। क्योंकि देर हो जाने के बाद हाथ मलते रह जाएगें। अगर दिन में एक साथ सियार ध्वनि नहीं निकाल सकते तो अपने वाले समय में ही (शाम की निश्चित हुड़दंगई काल) कुछ पाठ-वाठ कर लीजिए। हमारा भी कल्याण हो जाएगा और आप सभी का भी क्योंकि हमारे ही कल्याण से आपके रसपान का रास्ता निकलता है। क्योंकि सदैव देखा और पाया गया है कि आप सभी अपने कल्याण हेतु समस्त साधनों का निर्धारण बड़ी शालीनता से करते हैं जिसे देखकर हम सामान्य जन (आम आदमी का प्रयोग अब वर्जित है क्योंकि किसी ने इस पर कापीराइट ले रखा है) हतप्रभ हो उठते हैं इतने शालीन देवों के पूजक इतने अशालीन कैसे हो सकते हैं। पुनः आप सभी हमें लज्जित करने की कृपा करें।
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राजीव उपाध्याय

राजदीप सरदेसाई को लगे चाँटे का महत्त्व

राजदीप सरदेसाई को जिस किसी व्यक्ति ने थप्पड़ मारा वह अनुचित है और उसके लिए उसे कानूनी के अनुसार दण्ड मिलना ही चाहिए। बस इस घटना का इतना ही महत्त्व है इतनी सी बात ही काफी है। इससे अधिक ना तो अलोचना या फिर भर्त्सना करने की आवश्यकता है और ना ही किसी विधवा विलाप की (जो कुछ विद्वान एवं शान्तिप्रिय लोग कर रहे हैं) क्योंकि इस आदमी को आज अमेरीका नहीं बल्कि जेल में होना चाहिए था पर ये पत्रकारी भगवान हैं अतः ये जो करते हैं वो वेद ज्ञान है, जी नहीं माफी चाहता हँ, कोई दूसरे तरह का दैवीय ज्ञान है (क्योंकि राजदीप जी को वेद और हिन्दू लुच्चे लफंगे और दंगाई लगते हैं)।

सेना द्वारा कश्मीर बाढ़ में राहत कार्य करना अत्याचार है

बुद्धिजीविता का क्या है? बेचारी वो तो बेवश होती है तर्कों की! तर्क मतलब जिसे बुद्धिजीवी तार्किक माने! आवश्यक नहीं है कि वो बात तथ्यपरक ही हो। बस पसन्द आना चाहिए!

किसे?

अरे! भाई बुद्धिजीवी को। छोड़ो! आपकी समझ नहीं आएगा।

खैर।

मेरे कुछ अति विद्वान एवं बुद्धिजीवी मित्र हैं। वे बेचारे भारतीय सेनाओं (गलती से हिन्दुस्तानी मत पढ़ लेना) के कुकर्मों को याद कर-कर बहुत रोते हैं। बहुत मतलब दिन-रात! इतना अधिक कई बार आँसू रोना छोड़कर सोचना शूरू कर देते हैं कि उन्हें अब रोना चाहिए या नहीं! खैर! लगता है आँसू भी प्रलापी हो गए हैं।

मैं ISIS का शुक्रगुजार हूँ

मैं ISIS का शुक्रगुजार हूँ कि उसने मेरे सामान्य ज्ञान को थोड़ा तो बढ़ा दिया नहीं तो यज़ीदी नाम का बहुत पुराना मजहब भी है पता ही नहीं था। इसलिए गुरूदक्षिणा में कुछ और तो नहीं परन्तु धन्यवाद को कह ही सकता हूँ। खून मत माँगना गुरू मेरे शरीर में बहुत खून नहीं है। जीवन भी कितना मनोरंजक और ज्ञानवर्धक है कि हर जगह ज्ञान ही ज्ञान बँट रहा है। वैसे थोड़ा धन्यवाद तो थ्री इडियट्स के आमिर खान को भी जाता है कि उन्होंने ही दुनिया को बताया था कि हर जगह ज्ञान बँट रहा है। इसलिए पक्का वायदा रहा कि आपकी अगली फिल्म देखूँगा! अच्छा मैं शिष्य तो ठीक हूँ ना? वो क्या है ना केजरीवाल जी के आने के बाद सर्टिफिकेशन का महत्त्व बहुत बढ़ गया है। 

यदि मेरा ज्ञानवर्धन हुआ है तो उम्मीद है कि बाकी लोगों का भी ज्ञानवर्धन हुआ ही होगा। यूँ भी ये ज्ञानवर्धन मनोरंजन के साथ है। वैसे भी थोड़ा बहुत मनोरंजन भी आखिर अंग्रेजी फिल्मों में मरते लोगों को देखकर मिल ही जाता है और हिन्दी फिल्मों के नायक को खलनायक को मारते देखकर उत्साहित होने की हमारी आदत तो खैर बहुत पुरातन है। 

भारत एक क्रान्तिकारी देश है

मेरे कई मित्र कहते हैं कि भारत में कोई क्रान्ति नहीं हो सकती और मैं अव्यस्क उनसे अक्सर सहमत ही रहता था। परन्तु आज मेरे चक्षु खुले और मैं उनसे आज असहमत हो ही गया। और ये खुले हुए मेरे ज्ञानचक्षु बड़े क्रान्तिकारी हैं। हुआ यूँ कि सनी लियोनी ने इस देश में इतनी बड़ी क्रान्ति की है कि आमिर खान को भी नंगा होना पड़ रह है और मेरे दोस्त कहते हैं कि यहाँ क्रान्ति हो ही नहीं सकती! अगर यकीन नहीं होता तो पी के फिल्म का पोस्टर देख लें। 

अब तो मेरा मानना है कि इस क्रान्ति का भविष्य बहुत ही उज्जवल है और पुरा यकी है कि ये क्रान्ति भ्रष्टाचार आन्दोलन की तरह असफल नहीं होगी। कारण बड़े स्पष्ट हैं। मुख्यधारा के लोग इसके सिर्फ हिस्सा ही नहीं बन गए हैं बल्कि झन्डा भी बुलंद कर रहे हैं। सही भी तो है जो नंगा है वही आज विजयी है। कम से कम बलात्कार तो रूक ही जाएगा और निर्भया जैसी घटनाएँ तो अब बिल्कुल ही नहीं होगीं!