दुनिया का दिखावा
महान याकूब मेमन की बेगुनाही
Smart Cities, their Financing and Challenges
Relevance of Economic Theories of Dr. B. R. Ambedkar in Today’s Economic Scenario
Whatever discussion that has taken place till now had focused on the nature of economic theories that Dr Ambedkar argued for. Some economists term him as a monetary economist for his contribution towards Rupee and exchange rate. A few term his as a socialist economist because of his arguments and support for the mixed economy, state ownership and inclusion of each and every section of society in economic endeavor. Also there are a few economists who recall him as a free market economist because of his global prospective and pro-market ideals mainly for works like ‘The Problem of the Rupee: Its Origin and Its Solution’ (1923) and ‘The Evolution of Provincial Finance in British India: A Study in the Provincial Decentralisation of Imperial Finance’ (1925).
All these claims about economic ideals of Dr Ambedkar are to some extent true but tell one sided story. Basically Dr Ambedkar was pragmatic political economic thinker whose goals were to achieve inclusive growth and development and his political thinking and economic thinking were in tandem. No discussion can take place in isolation. Rather it has to consider both his economic and political thinking to reach at a conclusion that can give a holistic picture.
Another Economic Crisis in Few Years May Not Be A Surprise
Euro is in problem because of Greece debt crisis and the sentiments in Greece are against any restrictions and austerity. If Greece decides to abandon Euro and resurrect Drachma it will have catastrophic impact on Europe because Greece will pay in Drachma and that might not be accepted by IMF because of valuation issues. Also the existence of Euro may come under question as there is a group of economists who are against creations of Euro as they forecasted such problems.
Also the recovery of the US economy is not as expected. The developing economies are slowing down. At the same time Federal Reserve in contemplating the idea of increasing interest rates in the US. This will result in capital outflow from the developing economies leading even lower rate of growth. Also the central banks in different countries are acting as per their national interests and priorities but in an integrated financial world, it is would not be possible for the central banks to act independently without having caused other economies. The priorities in the Europe as of now are to come out of Greece debt problem and for that it require huge money so European countries may divest their stakes in developing countries. The US wants its money back to accelerate economic activities and that it may increase interest rates. At the same time developing economies needs more money from developed world to accelerate growth. These goals are not in tandem but contradictory.
Developing nations are markets for developed countries for highly technical and sophisticated products while developed world is market for less technical products from developing countries. So there is interdependence and if these countries don’t act in tandem another crisis in few years would not be a surprise.
Iran's Nuclear Deal and India
Although Iran's Nuclear deal is a good start for the world to move towards a peaceful and prosperous world but at the same time it is perhaps another salvo by the US against Russia that is already struggling because of lower oil prices. By the way it is good for India and obviously for Iran. This will provide cheap oil and some extra bargaining power for India against Russia at different fronts.
ग्रीस संकट और दुनिया
कुछ दिन पूर्व हुए जनमत संग्रह में ग्रीस की जनता द्वारा यूरोपीय यूनियन के बेल-आउट के प्रस्ताव को नकारना कर्ज की समस्या जुझती हुई ग्रीस की अर्थव्यवस्था के पक्ष में जाता हुआ नहीं दिख रहा है परन्तु यूरोपीय यूनियन को दबाव में लाने के लिए ग्रीस सरकार के हाथ में एक बहुत बड़ा अस्त्र दे दिया है जो अंतिम समझौते से समय बहुत काम आएगा। ग्रीस का पाँच साल पुराना कर्ज संकट आज सिर्फ ग्रीस के लिए ही नहीं बल्कि पूरे यूरोपीय यूनियन और यूरो के अस्तित्व पर सवालिया निशान खड़ा कर दिया है और संभावना है कि यदि इस संकट से जल्दी से जल्दी नहीं निपटा गया तो यह समस्या यूरोप होते हुए पूरी दुनिया के लिए एक बहुत बड़ी चुनौती बन सकता है। पर सवाल उठता है कि यूरोपीय यूनियन के सख्त नियमों के बाद भी ग्रीस की ये हालत क्यों हुई और पूर्व में दी गई राहत राशि के मिलने के बाद भी परेशानी घटने के बजाए बढता क्यों जा रहा है?
सरकार के लोकलुभावन निर्णयों का राष्ट्र के सामाजिक और आर्थिक संरचना पर दूरगामी दुष्प्रभाव पड़ता है और यही ग्रीस के साथ हुआ। 1974 में लोकतंत्र की बहाली के बाद से ही सैन्य सरकारों की वापसी के डर से लोकतांत्रिक सरकारों ने दशकों तक लोक-लुभावन कार्यक्रमों (सरकारी नौकरियाँ, पेन्शन और अन्य खर्चीली सामाजिक कल्याणकारी योजनाएं) एवं सेना पर खुले हाथों से खर्च करती रहीं। इसी समय सरकार ने टैक्स और ब्याज दरों को बहुत ही कम बनाए रखा गया। इसकी परिणिति एक बड़े राजकोषीय घाटा के रुप में हुई। अनुमानतः इसी समय कर चोरी और भ्रष्टाचार द्वारा लगभग 80 बिलियन यूरो काला घन देश के अन्दर और बाहर संचित हुआ। इतना ही नहीं 2010 से पहले की सरकारों ने जानबूझकर राजकोषीय घाटटे को कम बताकर लोक-लुभावन योजनाओं हेतु कर्ज लेती रहीं जो अंतः बढते-बढते सकल घरलू उत्पाद के 180% तक बढता गया और जब 2010 में सरकार इसे स्वीकार किया; तब तक बहुत देर हो चुकी थी।
ग्रीस का संकट सिर्फ अकेले ग्रीस का ही नहीं था बल्कि पूरे यूरोप का था इसीलिए यूरोपीय यूनियन, यूरोपीय क्रेन्द्रीय बैंक और आईएमएफ की तिकड़ी ने 2010 से अब तक दो बार ग्रीस को संकट से निकालने के लिए मितव्ययिता और ऊँचे कर दरों की शर्तों के साथ कई चरणों में सहायता राशि प्रदान किया है। परन्तु सहायता राशि का अधिकतम भाग ब्याज या कर्ज चुकता करने में ही खर्च हो गया और अर्थव्यवस्था में उत्पादकता पर कोई भी सकारात्मक असर नहीं पड़ सका। उल्टे मितव्ययिता और ऊँचे कर दरों के कारण पाँच सालों में अर्थव्यवस्था में 29% की गिरावट दर्ज की गई और बेरोजगारी को दर बढकर 26% तक पहुँच गई और दवा ही ग्रीस के लिए जहर बन गया और यही कारण है कि आज यूरोपीय यूनियन के शर्तों को लेकर ग्रीस में इतना विरोध है।
एक मुद्रा होने के कारण यूरोपीय यूनियन के सभी देशों के आर्थिक हित प्रत्यक्ष रुप से ग्रीस में निहित हैं तो बाकी दुनिया का अप्रत्यक्ष रुप यूरोप के माध्यम से। जर्मनी, फ्रांस, इटली और स्पेन आदि यूरोपीय देशों व अन्य कर्जदारों का लगभग 320 बिलियन यूरो का कर्ज ग्रीस सरकार पर पर है जिसमें से 195 बिलियन यूरो यूरोपीय यूनियन के सदस्य देशों का है। साथ ही कई देशों ने ग्रीस में स्थायी निवेश कर रखा है। इन परिस्थितियों में यदि ग्रीस इस कर्ज नहीं दे पाता या फिर देर करता है तो पूरे यूरोपीय देशों, अंतर्राष्ट्रीय बैंको और अन्य देशों की अर्थव्यवस्थाओं को प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष आर्थिक हानि होगी। इस प्रकार ग्रीस का असर पुरी दुनिया पर पड़ना अवश्यम्भावी है परन्तु यह असर बहुत बड़ा नहीं होगा क्योंकि ऐसा लगता है कि ईयू, ईसीबी और आईएमएफ की तिकड़ी को इस बात का अंदाजा था कि ग्रीस का संकट कौन सा मोड़ लेगा और शायद इसीलिए पूर्ववर्ती दो आर्थिक सहायतायें यूरोप के लिए समय खरीद रही थीं ताकि 2008 के वित्तीय संकट से यूरोप उबर सके। यूरोप इसमें बहुत हद तक सफल भी रहा है। इन चार-पाँच सालों में यूरोप में आर्थिक स्थिरता व निरंतरता आई है; परन्तु ग्रीस पर इसका कोई भी सकारात्मक असर नहीं हुआ है।
आज पूरा यूरोप ग्रीस के लिए तीसरे बेल-आउट पर चर्चा कर रहा है जो पुनः मितव्ययिता और ऊँचे कर दरों के शर्तों के साथ ग्रीस की अर्थव्यवस्था के लिए उपलब्ध होगा। परन्तु वर्तमान परिस्थितियों में शायद ये बहुत ही प्रभावकारी ना हो। इस स्थिति में ग्रीस अपनी मुद्रा ड्राक्मा को पुर्नस्थापित व अवमूल्यन कर ड्राक्मा में कर्ज चुकता करे जैसे अर्जेन्टीना और भारत ने दो दशक पूर्व किया था परन्तु ये विकल्प बिना इंगलैण्ड की तरह यूरोपीय यूनियन का द्वितीय श्रेणी का सदस्य बने संभव नहीं है। परन्तु महत्त्वपूर्ण ये है कि आईएमएफ ऐसा कभी नहीं चाहेगा कि ग्रीस ड्राक्मा में कर्ज चुकता करे और बैंकों का नुकसान हो। दूसरा रास्ता ये है कि यूरोपीय यूनियन के देश कर्ज ॠण का एक बड़ा भाग माँफ करते हुए ॠण की अवधि बढाएँ तथा कम दरों पर लम्बी अवधि का बड़ा ॠन प्रदान करें और यूरो साख को बचाए रखने का शायद यही एकमात्र तरीका यूरोप के पास बचा है। क्योंकि यदि ग्रीस यूरो का परित्याग करता है तो उन सिधान्तों और दावों को बल मिलेगा जो शूरू से ही यूरो के विरोध में थे।
ऐसे समय पर जब भारत के अर्थव्यवस्था की विकास की दर औसत रही है यूरोपीय युनियन के सदस्य देश ग्रीस में कर्ज की समस्या बढती ही जा रही है। ऐसा नहीं है कि ग्रीस अचानक ही आर्थिक परेशानियों में घिर आया है। ग्रीस पिछले कई सालों से आर्थिक रुप से परेशान रहा है और ग्रीस का यूरोपीय यूनियन में बने रहने पर सवाल उठाता रहा है क्योंकि ग्रीस की पिछली सरकारों खुले हाथ से कर्ज लेकर सरकार धन को लुटाती रही हैं। और आज ग्रीस पूरे यूरोप के लिए परेशानी का कारण बन गया है और भारत भी इससे अछूता नहीं रह पाएगा।
वैसे तो भारत का ग्रीस के कोई बहुत ही मजबूत आर्थिक संबन्ध नहीं है। बस थोड़ा बहुत व्यापार ही ग्रीस के साथ है लेकिन भारत का यूरोपीय यूनियन के देशों मुख्यतः ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी आदि देशों से बहुत बड़ी मात्रा में व्यापारिक लेन-देन है और ग्रीस की अर्थव्यवस्था को बचाने के लिए यूरोपीय यूनियन देश हर तरह का प्रयास करेंगे जिसका असर ये होगा कि भारत में आने वाले विदेशी निवेश में कमी आयेगी। और उम्मीद की जा रही है कि यूरोपीय देश अपने देश में ब्याज दर को बढ़ा सकते हैं जिससे भारत से बड़ी मात्रा में विदेशी पैसा वापस जायेगा। और ये सब तब होगा जब अमेरीका फेडेरल रिजर्व भी ब्याज दर बढाने की सोच रहा और भारत निजी निवेश बढाने के लिए ब्याज दर कम करने की सोच रहा है। ये सब कारक मिलकर भारत से विदेशी निवेश के पलायन को बढावा देंगी। परन्तु कोई अन्य गंभीर आर्थिक परिणाम आने की कोई संभावना नहीं है।