समझा जिसे लहू अपने रगों का।
देखा ज़हर वो मिला रहा था॥
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दिल्ली शहर नहीं ये, रंगमंच सराबोर।
मिलते बिछड़ते छुटते छुड़ाते रोज॥
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अपने अन्तर आपने, बाँचे हैं सब कौल।
मगर नहीं कह पाते, कह देता जो मौन॥
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झूठी सकल किताब हैं, झूठे हैं सब वेद।
उतना ही सच जानिए, खोल सके जो भेद॥
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राजीव उपाध्याय
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