जिन्दगी अजीब है

ये जिन्दगी अजीब है 
कि हर आदमी 
जो मेरे करीब है 
कि संग जिसके 
कुछ पल 
कुछ साल गुजारे थे मैंने; 
जिनमें से कइयों ने तो 
अँगुली पकड़कर 
चलना भी सिखाया था, 
दूर 
बहुत दूर चले जा रहे हैं 
जहाँ से वो ना वापस आ सकते हैं 
और ना ही मैं मिल सकता हूँ उनसे 
और इस तरह 
हर पल 
थोड़ा कम 
और अकेला होता जा रहा हूँ मैं। 

यूँ तो चारों तरफ 
झुंड के झुंड लोग हैं 
और चेहरे कई 
जाने-पहचाने से भी हैं 
पर उस जान-पहचान का क्या? 
कि हँस तो सकते हैं वो संग मेरे 
और रो भी सकते हैं 
पर कदम दो कदम 
संग टहल सकते नहीं। 

ऐसा नहीं 
कि इस भीड़ में 
बस अकेला मैं ही हूँ। 
हर कोई तन्हा है 
अकेला है 
पर भीड़ 
इस कदर है आस-पास उसके 
कि वो नहीं 
बस भीड़ ही भीड़ है 
कि आदमी, आदमी का जंजीर है। 
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राजीव उपाध्याय

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