दूर-दूर तक
आदमी ऐसा कोई दिखता नहीं
कि कर लें यकीन
उस पर एक ही बार में।
यकीन मगर करना भी है
तुझ पर भी
और मुझ पर भी।
ऐसा नहीं
कि यूँ करके सिर्फ मुझसे ही है
हर आदमी यहाँ
कश्ती एक ही में सवार है
जाना है एक ही जगह
और एक ही मझधार है
बस रंग-पोत कर
कर डाला अपनी अलग पतवार है।
और उसको ये यकीन अब है हो चला
कि आदमी नहीं वो
वो तो आदमी का मददगार है।
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राजीव उपाध्याय
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