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जहाँ तक प्रश्न ‘गाँधी जी और उनके बरक्स कौन’ का है तो यह प्रवृत्ति देश में उनके ही एक महत्त्वपूर्ण समर्थक ने शुरू किया था। वो जवाहर लाल नेहरू थे जिन्होंने नेहरू जी को गाँधी जी बरक्स खडा करने का भगीरथ प्रयास गाँधी जी के जीवन काल में ही प्रारंभ कर दिया था जो बाबा साहब अंबेडकर और संत ज्योतिबा फुले की सीढियों से चढते हुए नाथूराम गोडसे तक शास्त्री जी के ढ़ाल के सहारे पहुँचा है और उम्मीद है अवश्य ही किसी दिन किसी दाउद इब्राहिम तक पहुँचा दिया जाएगा। खैर।
इस ऐतिहासिक ड्रामे के दो सबसे मनोरंजक तथ्य हैं। पहला यह कि इस महान कार्य को संपादित करने में समाज का सबसे अधिक पढे लिखे वर्ग (जो अक्सर पीएचडी धारक हैं) का महती योगदान है। दूसरा यह कि एक ओर आज जो लोग गाँधी जी के लिए रूदाली हुए जा रहे हैं वही लोग कुछ साल पहले तक गाँधी जी को पतंजलि के संस्कारी गालियों से नवाजते हुए कितनी ही उपाधियों से विभूषित कर रहे थे और वही लोग कुछ सालों बाद अपनी प्रवृत्ति के अनुसार गाँधी जी पर कुछ नए आरोपों के साथ वापसी करेंगे। वहीं दूसरी ओर जो लोग आज गाँधी जी को किसी ना किसी के बरक्स बौना बनाने में लगे हैं वही लोग कल गाँधी जी को डिफेंड करते नजर आएंगे। यही गाँधी जी का महत्त्व है। ऐसा नहीं है कि गाँधी जी की विचार प्रक्रिया सवाल और संदेहों से घेरे से मुक्त है। उनके विचार और जीवन पर हजार सवाल होना चाहिए और गाँधीवादियों को इन सवालों का स्वागत करते हुए उत्तर देना चाहिए और भी बिना किसी पूर्वाग्रह के।
वैसे गाँधी जी पर प्रश्न और उत्तर, पक्ष-विपक्ष का एक साइकिल है। बिल्कुल इकोनॉमिक साइकिल की तरह जिसमें एक्सपेंशन और कान्ट्रैक्शन स्वभाविक प्रक्रिया है जो रोके रूकेगी नहीं। हाँ गति जरूर बदली जा सकती है।
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