दिलों पर बोझ लिए घर को जाता मजदूर

कोरोना वायरस के फैलने के कारण आज पूरे देश में प्रवासी मजदूर परेशान हैं। ये वही प्रवासी मजदूर हैं जो कभी अपना और अपने परिवार का पेट भरने के लिए अपने घर परिवार और गाँव को पीछे छोड़कर एक उम्मीद के साथ शहरों में आए थे और इन शहरों मे आकर शहरी समाज व भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ बनकर उसे ना सिर्फ मजबूती से थाम रखा था बल्कि उसे गति भी दे रहे थे। पर आज वे मजबूर हैं! इतने मजबूर कि वे कहीं खाने पीने के सामानों के लिए एक दूसरे से ही संघर्ष कर रहे हैं तो कहीं लाखों की संख्या में अपने खाने की थाली लेकर पूरे देश में लाइनों में खड़े हैं! केन्द्र सरकार के पास आज बेहिसाब आनाज है और राज्य सरकारें दावा भी कर रही हैं परन्तु सरकारें ना तो इन लोगों को खाने-पीने का सामान उपलब्ध करा पा रही हैं और ना ही खाना दे पा रही हैं।

लोग पूछ रहे हैं कि क्या हड़बड़ी है घर जाने की? ठीक है पर आप भी तो बताइए कि आखिर कोई भूखा रहे तो कब तक? या भावी भूख के साए में जिए कब तक? सुरक्षा का भाव तो सभी के लिए स्थाई भाव है! सभी सुरक्षित रहना चाहते हैं भूख और जीवन के प्रति भय दोनों से ही। परन्तु इन्सान भूखा मरने के बदले जीवन के भय से लड़कर मरना पंसद करता है। इसलिए ये मजदूर अंततः अपनी हथेलियों पर अपना जीवन रखकर अपने घरों के लिए निकल पड़े हैं (मैं सोशल डिस्टेंसिंग की ही बात कर रहा हूँ)। लाखों की तादाद में ये मजबूर प्रवासी मजदूर अपने घरों को वापस जाने के लिए बस व ट्रेन स्टेशनों पर भीड़ लगाए खड़े हैं और सरकारें उनकी वापसी के लिए यातायात की व्यवस्था तक नहीं कर पा रही हैं। ये हालात तब हैं जब सरकारी अमला इतना बड़ा है और सरकारें इंसान के जीवन के हर कोने में जगह बनाकर कहीं ना कहीं शामिल है!

तो फिर क्या करते मजदूर? हाथ पर हाथ रखकर बैठे तो नहीं रह सकते थे! आखिरकार हारकर एवं दिलों पर बोझ लिए (कुछ सपनों के टूटने और कुछ के भविष्य में टूटने का डर) खुद पर विश्वास कर पैदल ही अपने घरों की ओर निकल चूके हैं परन्तु कहते हैं ना अभागे का दुर्भाग्य कहीं भी साथ नहीं छोड़ता है। यहाँ भी उन्हें हताशा ही मिल रही है। कुछ भूख प्यास से मर रहे हैं तो कुछ दुर्घटना में मारे जा रहे हैं तो कुछ को प्रशासन परेशान करने का कोई भी मौका छोड़ नहीं रहा है।

लोग कह रहे हैं कि इतना बड़ा देश है और इतने अधिक लोग हैं; सरकार किस-किस को सहायता दे सकती है? सही बात है, बिल्कुल सही बात। परन्तु सरकार और समाज उन्हें भरोसा भी तो नहीं दे सका! सरकारों के लिए ये मजदूर बेसहारा मजबूर गाय हैं जो जाएंगे तो जाएँगे कहाँ? कटने के लिए वापस लौट ही आएंगे! और शहरी समाज के लिए इन मजदूरों की हैसियत एक सब्जीवाले, प्लम्बर या फिर सिर पर बोझ ले दिहाड़ी करते मजदूर से अधिक और कुछ है भी तो नहीं! कम से कम इंसान की तो बिल्कुल भी नहीं है।

राजीव उपाध्याय

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