ग्रीस संकट और दुनिया

 

कुछ दिन पूर्व हुए जनमत संग्रह में ग्रीस की जनता द्वारा यूरोपीय यूनियन के बेल-आउट के प्रस्ताव को नकारना कर्ज की समस्या जुझती हुई ग्रीस की अर्थव्यवस्था के पक्ष में जाता हुआ नहीं दिख रहा है परन्तु यूरोपीय यूनियन को दबाव में लाने के लिए ग्रीस सरकार के हाथ में एक बहुत बड़ा अस्त्र दे दिया है जो अंतिम समझौते से समय बहुत काम आएगा। ग्रीस का पाँच साल पुराना कर्ज संकट आज सिर्फ ग्रीस के लिए ही नहीं बल्कि पूरे यूरोपीय यूनियन और यूरो के अस्तित्व पर सवालिया निशान खड़ा कर दिया है और संभावना है कि यदि इस संकट से जल्दी से जल्दी नहीं निपटा गया तो यह समस्या यूरोप होते हुए पूरी दुनिया के लिए एक बहुत बड़ी चुनौती बन सकता है। पर सवाल उठता है कि यूरोपीय यूनियन के सख्त नियमों के बाद भी ग्रीस की ये हालत क्यों हुई और पूर्व में दी गई राहत राशि के मिलने के बाद भी परेशानी घटने के बजाए बढता क्यों जा रहा है?

सरकार के लोकलुभावन निर्णयों का राष्ट्र के सामाजिक और आर्थिक संरचना पर दूरगामी दुष्प्रभाव पड़ता है और यही ग्रीस के साथ हुआ। 1974 में लोकतंत्र की बहाली के बाद से ही सैन्य सरकारों की वापसी के डर से लोकतांत्रिक सरकारों ने दशकों तक लोक-लुभावन कार्यक्रमों (सरकारी नौकरियाँ, पेन्शन और अन्य खर्चीली सामाजिक कल्याणकारी योजनाएं) एवं सेना पर खुले हाथों से खर्च करती रहीं। इसी समय सरकार ने टैक्स और ब्याज दरों को बहुत ही कम बनाए रखा गया। इसकी परिणिति एक बड़े राजकोषीय घाटा के रुप में हुई। अनुमानतः इसी समय कर चोरी और भ्रष्टाचार द्वारा लगभग 80 बिलियन यूरो काला घन देश के अन्दर और बाहर संचित हुआ। इतना ही नहीं 2010 से पहले की सरकारों ने जानबूझकर राजकोषीय घाटटे को कम बताकर लोक-लुभावन योजनाओं हेतु कर्ज लेती रहीं जो अंतः बढते-बढते सकल घरलू उत्पाद के 180% तक बढता गया और जब 2010 में सरकार इसे स्वीकार किया; तब तक बहुत देर हो चुकी थी।

ग्रीस का संकट सिर्फ अकेले ग्रीस का ही नहीं था बल्कि पूरे यूरोप का था इसीलिए यूरोपीय यूनियन, यूरोपीय क्रेन्द्रीय बैंक और आईएमएफ की तिकड़ी ने 2010 से अब तक दो बार ग्रीस को संकट से निकालने के लिए मितव्ययिता और ऊँचे कर दरों की शर्तों के साथ कई चरणों में सहायता राशि प्रदान किया है। परन्तु सहायता राशि का अधिकतम भाग ब्याज या कर्ज चुकता करने में ही खर्च हो गया और अर्थव्यवस्था में उत्पादकता पर कोई भी सकारात्मक असर नहीं पड़ सका उल्टे मितव्ययिता और ऊँचे कर दरों के कारण पाँच सालों में अर्थव्यवस्था में 29% की गिरावट दर्ज की गई और बेरोजगारी को दर बढकर 26% तक पहुँच गई और दवा ही ग्रीस के लिए जहर बन गया और यही कारण है कि आज यूरोपीय यूनियन के शर्तों को लेकर ग्रीस में इतना विरोध है।

एक मुद्रा होने के कारण यूरोपीय यूनियन के सभी देशों के आर्थिक हित प्रत्यक्ष रुप से ग्रीस में निहित हैं तो बाकी दुनिया का अप्रत्यक्ष रुप यूरोप के माध्यम से। जर्मनी, फ्रांस, इटली और स्पेन आदि यूरोपीय देशों व अन्य कर्जदारों का लगभग 320 बिलियन यूरो का कर्ज ग्रीस सरकार पर पर है जिसमें से 195 बिलियन यूरो यूरोपीय यूनियन के सदस्य देशों का है। साथ ही कई देशों ने ग्रीस में स्थायी निवेश कर रखा है। इन परिस्थितियों में यदि ग्रीस इस कर्ज नहीं दे पाता या फिर देर करता है तो पूरे यूरोपीय देशों, अंतर्राष्ट्रीय बैंको और अन्य देशों की अर्थव्यवस्थाओं को प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष आर्थिक हानि होगी। इस प्रकार ग्रीस का असर पुरी दुनिया पर पड़ना अवश्यम्भावी है परन्तु यह असर बहुत बड़ा नहीं होगा क्योंकि ऐसा लगता है कि ईयू, ईसीबी और आईएमएफ की तिकड़ी को इस बात का अंदाजा था कि ग्रीस का संकट कौन सा मोड़ लेगा और शायद इसीलिए पूर्ववर्ती दो आर्थिक सहायतायें यूरोप के लिए समय खरीद रही थीं ताकि 2008 के वित्तीय संकट से यूरोप उबर सकेयूरोप इसमें बहुत हद तक सफल भी रहा है। इन चार-पाँच सालों में यूरोप में आर्थिक स्थिरता निरंतरता आई है; परन्तु ग्रीस पर इसका कोई भी सकारात्मक असर नहीं हुआ है।

आज पूरा यूरोप ग्रीस के लिए तीसरे बेल-आउट पर चर्चा कर रहा है जो पुनः मितव्ययिता और ऊँचे कर दरों के शर्तों के साथ ग्रीस की अर्थव्यवस्था के लिए उपलब्ध होगा। परन्तु वर्तमान परिस्थितियों में शायद ये बहुत ही प्रभावकारी ना हो। इस स्थिति में ग्रीस अपनी मुद्रा ड्राक्मा को पुर्नस्थापित अवमूल्यन कर ड्राक्मा में कर्ज चुकता करे जैसे अर्जेन्टीना और भारत ने दो दशक पूर्व किया था परन्तु ये विकल्प बिना इंगलैण्ड की तरह यूरोपीय यूनियन का द्वितीय श्रेणी का सदस्य बने संभव नहीं है। परन्तु महत्त्वपूर्ण ये है कि आईएमएफ ऐसा कभी नहीं चाहेगा कि ग्रीस ड्राक्मा में कर्ज चुकता करे और बैंकों का नुकसान हो। दूसरा रास्ता ये है कि यूरोपीय यूनियन के देश कर्ज ॠण का एक बड़ा भाग माँफ करते हुए ॠण की अवधि बढाएँ तथा कम दरों पर लम्बी अवधि का बड़ा ॠन प्रदान करें और यूरो साख को बचाए रखने का शायद यही एकमात्र तरीका यूरोप के पास बचा है। क्योंकि यदि ग्रीस यूरो का परित्याग करता है तो उन सिधान्तों और दावों को बल मिलेगा जो शूरू से ही यूरो के विरोध में थे।

ऐसे समय पर जब भारत के अर्थव्यवस्था की विकास की दर औसत रही है यूरोपीय युनियन के सदस्य देश ग्रीस में कर्ज की समस्या बढती ही जा रही है। ऐसा नहीं है कि ग्रीस अचानक ही आर्थिक परेशानियों में घिर आया है। ग्रीस पिछले कई सालों से आर्थिक रुप से परेशान रहा है और ग्रीस का यूरोपीय यूनियन में बने रहने पर सवाल उठाता रहा है क्योंकि ग्रीस की पिछली सरकारों खुले हाथ से कर्ज लेकर सरकार धन को लुटाती रही हैं। और आज ग्रीस पूरे यूरोप के लिए परेशानी का कारण बन गया है और भारत भी इससे अछूता नहीं रह पाएगा।

वैसे तो भारत का ग्रीस के कोई बहुत ही मजबूत आर्थिक संबन्ध नहीं है। बस थोड़ा बहुत व्यापार ही ग्रीस के साथ है लेकिन भारत का यूरोपीय यूनियन के देशों मुख्यतः ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी आदि देशों से बहुत बड़ी मात्रा में व्यापारिक लेन-देन है और ग्रीस की अर्थव्यवस्था को बचाने के लिए यूरोपीय यूनियन देश हर तरह का प्रयास करेंगे जिसका असर ये होगा कि भारत में आने वाले विदेशी निवेश में कमी आयेगी। और उम्मीद की जा रही है कि यूरोपीय देश अपने देश में ब्याज दर को बढ़ा सकते हैं जिससे भारत से बड़ी मात्रा में विदेशी पैसा वापस जायेगा। और ये सब तब होगा जब अमेरीका फेडेरल रिजर्व भी ब्याज दर बढाने की सोच रहा और भारत निजी निवेश बढाने के लिए ब्याज दर कम करने की सोच रहा है। ये सब कारक मिलकर भारत से विदेशी निवेश के पलायन को बढावा देंगी। परन्तु कोई अन्य गंभीर आर्थिक परिणाम आने की कोई संभावना नहीं है।

 

 

कुछ शेर

समझा जिसे लहू अपने रगों का।
देखा ज़हर वो मिला रहा था॥
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दिल्ली शहर नहीं ये, रंगमंच सराबोर।
मिलते बिछड़ते छुटते छुड़ाते रोज॥
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अपने अन्तर आपने, बाँचे हैं सब कौल।
मगर नहीं कह पाते, कह देता जो मौन॥
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झूठी सकल किताब हैं, झूठे हैं सब वेद।
उतना ही सच जानिए, खोल सके जो भेद॥
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राजीव उपाध्याय

धीमा किन्तु मजबूत कदम

पिछली जुलाई में जब नवनिर्वाचित सरकार ने पिछली सरकार निर्णय को बदलते हुए विश्व व्यापार संगठन के व्यापार सरलीकरण समझौता को स्वीकार करने से मना किया तो पुरी दुनिया स्तब्ध रह गयी थी। आर्थिक विशेषज्ञ, विकसित देश व अंतराष्ट्रीय संगठनों ने कड़ी प्रतिक्रिया दी थी और उन दिनों में भारत की आर्थिक संदर्भों में भावी अंतराष्ट्रीय भूमिका संदिग्ध मानी जा रही थी। तब लगभग एकमत राय थी कि भारत द्वारा लिये गये इस फैसले से इसके अंतराष्ट्रीय भूमिका और हितों पर नकारात्मक असर पड़ेगा लेकिन जब हम आज पीछे मुड़कर देखते हैं तो स्पष्ट हो जाता है कि वो फैसला भारत के लिए लाभकारी साबित हुआ और पुरी दुनिया की राय भारत को लेकर सकारात्मक हुई है। परन्तु ये यूँ ही नहीं हुआ है। इसके पीछे सरकार द्वारा घरेलू स्तर पर लिए गये निर्णय और कार्यवाहियों का योगदान है।

जिन्दगी

अटूट बंधन के मई अंक में प्रकाशित कविता। धन्यवाद वंदना वाजपेयी जी
आदमी 
चुपचाप रहे
या बातें करे बहुत
जिन्दगी
बेपरवाह
चलती रहती है।

तरतीब भी वही
तरकीब भी वही
जिन्दगी खामोश
उसी पुराने धर्रे से
पिघलती रहती है।

बस 
आँख नई होती है
जो सब कुछ
नया गढ़ती है।
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राजीव उपाध्याय

नज़र से नज़र की बात

नज़र ने तेरे 
नज़र से मेरे 
नज़र की बात की थी 
पल दो पल की नहीं 
सदियों से लम्बी बड़ी……… 
मुलाकात की थी।

बंदिशें…… 
थीं जो दरम्याँ कुछ 
नज़रों में ही टूट गईं 
पर इतेफ़ाक़ 
ये भी कुछ अज़ीब था, 
कि बात सारी 
जो भी हुई 
नज़रों में ही छूट गई। 
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राजीव उपाध्याय

It’s Hypocrisy that Encourages Communalism in India

Media reports clearly suggest that 86 families belonging to Dalit community are threatening to accept Islam if it can save their houses. These reports on the very first instance seem that this threat is nothing but tactics to gain media attention so that they can raise their issue to broader public so that they can gain some public sympathy and may be immediate relief. These people have been living on unauthorized area for decades. This is now being treated as encroachment by authorities, so they trying to vacate the land so that can build road. It is clearly a case of illegal encroachment. But this needs humanitarian approach. Though, not right precedence.

इज्जतदार लेखक

अक्सर लेखक लोग अकादमियों और मंत्रालय के अधिकारियों को कोसते रहते हैं कि क्यों लेखक को जीते जी सम्मान नहीं देते हैं वो। लेखक के मरने के बाद ही क्यों उसे सम्मान मिलता है। मैंने अक्सर देखा है कि गलती तो इन शरीफ लोगों की होती है। पर ये शब्दों के खिलाडी दूसरों पर दोषारोपण करते रहते हैं। ये बेचारे सचिव इत्यादि अधिकारियों की चमडी मोटी होती है कि उन पर कोई बुरा असर नहीं पडता नहीं तो कोई सामान्य जन (आम आदमी नहीं कह सकता) होता तो कब का इति श्री रेवा खण्डे समाप्तः हो चुका होता।
होता यूँ है कि अधिकारीगण तो इन्तजार करते रहते हैं कि कब लेखक कवि महोदय आकर सलाम करें, कुछ चिकनी चुपडी कविता कहानी उनके प्रशंसा में लिखे। पर लेखक जाते ही नहीं (जो जाते हैं उनके घर सम्मान रखने जगह ही नहीं रह जाती) और वो इन्तज़ार करते रह जाते हैं कि अब आएंगे कि तब आएंगे। कई बार तो खबर भी भिजवाते हैं। उलाहना भी देते हैं। पर भाई लेखक तो ठहरा लेखक। धुन का पक्का। नहीं जाएंगे तो नहीं जाएंगे औरी अधिकारी भी जिद्दी। बस इसी रस्साकशी में लेखक महोदय कभी बिना तो कभी खुब खाकर निकल लेते हैं। तब बेचारा अधिकारी बडा दुखी होता है। सोचता है कि का बेवजह ही लेखक महोदय के साथ फोटो खींचवाने का मौका से निकल गया। और ये सोचकर लेखक महोदय की इज्जत अफजाई कि सोचता है कि उधर लेखक महोदय का भूत जो कभी पुरस्कार के पीछे भागे नहीं पुरस्कार पाने के लिए बेचैन हो ऊठता है और वो भूत रोज सपनों में तो कभी रास्ते पर तो कभी गाड़ी में अधिकारी महोदय को डराने लगता है। और बेचार आतंकित अधिकारी हारकर लेखक महोदय की प्रतिमा पर फूल चढाकर उनकी आत्मा की शान्ति के लिए प्रार्थना करने के लिए मजबूर हो जाता है। चापलूसी करने की आदत होती है अधिकारी तो लेखक के भूत की जम के बडाई करता और लेखक महोदय की आत्मा तृप्त होती है और वो ये इहलोक छोड़ कर परम धाम को चले जाते हैं। इस तरह अधिकारी बेचारे को शान्ति मिलती है कुछ दिनों के लिए क्योंकि थोडे दिनों दुसरा धुनी लेखक भी मर जाता है औरी अधिकारी के प्रताडना क्रम चलता रहता है फिर भी अधिकारी को ही ये लेखक दोषी ठहराते हैं जबकि हैं स्वयं दोषी। वैसे भी साहित्य में परम्परा है कि जो लेखक जीते जी इज्जतदार हो जाता है वह बाजारू कहलाता है और कभी-कभी दला……(?)