भारत में मंदी की दस्तक

भारत में मंदी की दस्तक Slowdown in Indian economyभारत में आर्थिक मंदी ने 2015 के अंत से ही दस्तक देना शुरू कर दिया था और इस ओर किसी का भी ध्यान नहीं गया। हालाँकि 2014 में रघुराम राजन ने वित्तीय मंदी की संभावना व्यक्त की थी। 2015 के बाद से ही व्यापार चक्र एवं वित्तीय चक्र सहित विभिन्न लीड इन्डीकेटर स्पष्ट तो नहीं परन्तु संभावित मंदी की ओर इंगित करना शुरू कर दिया था जो दिख नहीं रहा था परन्तु उस मंदी के संकेत अनेक स्तरों जैसे की खपत, प्राइवेट निवेश और जीडीपी की कमी इत्यादि के रूप में अब दिखाई देना शुरू कर दिया है। परन्तु उम्मीद है कि ये मंदी थोड़े समय के लिए ही रहेगी।

उसके कई तलबगार हुए

कभी हम सौदा-ए-बाज़ार हुए 
कभी हम आदमी बीमार हुए 
और जो रहा बाकी बचा-खुचा 
उसके कई तलबगार हुए॥ 

सितम भी यहाँ ढाए जाते हैं 
रहनुमाई की तरह 
पैर काबे में है 
और जिन्दगी कसाई की तरह॥

रमन मैग्सेसे और रवीश कुमार

रमन मैग्सेसे, रवीश कुमार, Ravish Kumar, Raman Magsaysay Awardसीधा-साधा डाकिया जादू करे महान 
एक ही थैले में भरे आँसू और मुस्कान। 
- निदा फाज़ली 

निदा फाज़ली ने इन दो पँक्तियों में क्या कुछ नहीं कह दिया है! कुछ भी तो बाकी नहीं है! जीवन का सार है। शायद सारा। घटना एक ही होती है और हर आदमी अपने-अपने हिसाब से उसे अच्छा या बुरा कहता है और इस तरह से उस घटना के अच्छा या बुरा होने को लेकर सोचना ही मुश्किल हो जाता है। क्या नैतिकता, क्या तर्क! किसी भी सांचे में डालना या कहीं कसना मुमकिन ही नहीं दिखता। 

रवीश कुमार को रमन मैग्सेसे पुरस्कार क्या मिला, चारों तरफ भावनाओं का ज्वार उफान मार रहा है! यह रवीश कुमार के काम को अंतराराष्ट्रीय स्तर पर स्वीकृति मिली है, जहाँ रवीश कुमार को इसके लिए सिर्फ बधाई मिलनी चाहिए। बस! वहीं कुछ लोग खुशी में पागल हुए जा रहे हैं तो कुछ लोग गम दीवाने! 

वो जगह

ढूँढ रहा हूँ जाने कब से 
धुँध में प्रकाश में 
कि सिरा कोई थाम लूँ 
जो लेकर मुझे उस ओर चले 
जाकर जिधर 
संशय सारे मिट जाते हैं 
और उत्तर हर सवाल का 
सांसों में बस जाते हैं। 

मेरी कहानी

तूफान कोई आकर 
क्षण में चला जाता है 
पर लग जाते हैं बरसों 
हमें समेटने में खुद को 
संभला ही नहीं कि बारिश कोई
जाती है घर ढहाकर।

सूर्ख शर्तें

कुछ चेहरे
बस चेहरे नहीं होते
सूर्ख शर्तें होती हैं हमारे होने की। 

कुछ बातें
बस बातें नहीं होतीं
वजह होती हैं हमारे होने की। 

और बेवजह भी बहुत कुछ होता है
जिनसे जुड़ी होती हैं
हमारी साँसें होने की।

समय

समय की ही कहानी कह रहे हैं सभी
पशु, आदमी या हो फिर कोई चींटी।

हेर-फेर है किरदारों में बस
कि आइने की अराइश से
बह रही हैं स्वर लहरियाँ कई
जो होकर गुजरती हैं कानों से सभी।
समय की ही कहानी कह रहे हैं सभी॥

शीला दीक्षित: एक बड़ा वृक्ष

शीला दीक्षित, Sheila Dixit
जीवन की गति को लोग चक्रीय कहते नहीं थकते परन्तु जाने क्यों ये मुझे अजीब लगता है? क्या कारण है नहीं जानता? परन्तु इसके चक्रीय होने में अक्सर भ्रम हो जाता है। मुझे लगता है जैसे ये शंकुवन का कोई शंकुवृक्ष हो जिस पर एक ओर से चढ़ते-चढ़ते उसके शिखर पर पहुँचे ही होते हैं कि आप सरककर वहीं पहुँच जाते हैं जहाँ से आपने चढ़ना शुरु किया था। 

अक्सर ऐसा होता है कि हमें वो भी याद आने लगते हैं जिनसे हमारा कोई सीधा सीधा मतलब नहीं होता है और शायद यही उन याद आने वाले लोगों की जीवन की कमाई है। खरी कमाई। कई बार मिश्री की तरह मीठी तो कई बार नमकीन या फिर कड़वी। बहुत कड़वी। 

सूरज! तू क्या संग लाया है?

सूरज! तू क्या संग लाया है?
आशाओं को,
क्या पीली किरणों में बिखराया है?
सूरज! तू क्या संग लाया है?

सांसें जो
बोझिल हैं अब तक
उनको क्या तू सहलाया है?
सूरज! तू क्या संग लाया है?

बस पढनेवाला नहीं कोई

मेरे घर का मेरा वो कोना
जो अब तुम्हारा हो चुका है
मुझमें तेरे होने की 
वही कहानी कहता है
जो कभी माँ
पिताजी के साथ सुनती थी
और ईया बाबा को बताती थीं। 

कुछ भी नया नहीं है;
ना झगड़ा
ना ही बातें प्यार की।