
भारत में मंदी की दस्तक

उसके कई तलबगार हुए
कभी हम सौदा-ए-बाज़ार हुए
कभी हम आदमी बीमार हुए
और जो रहा बाकी बचा-खुचा
उसके कई तलबगार हुए॥
सितम भी यहाँ ढाए जाते हैं
रहनुमाई की तरह
पैर काबे में है
और जिन्दगी कसाई की तरह॥
रमन मैग्सेसे और रवीश कुमार
एक ही थैले में भरे आँसू और मुस्कान।
- निदा फाज़ली
निदा फाज़ली ने इन दो पँक्तियों में क्या कुछ नहीं कह दिया है! कुछ भी तो बाकी नहीं है! जीवन का सार है। शायद सारा। घटना एक ही होती है और हर आदमी अपने-अपने हिसाब से उसे अच्छा या बुरा कहता है और इस तरह से उस घटना के अच्छा या बुरा होने को लेकर सोचना ही मुश्किल हो जाता है। क्या नैतिकता, क्या तर्क! किसी भी सांचे में डालना या कहीं कसना मुमकिन ही नहीं दिखता।
रवीश कुमार को रमन मैग्सेसे पुरस्कार क्या मिला, चारों तरफ भावनाओं का ज्वार उफान मार रहा है! यह रवीश कुमार के काम को अंतराराष्ट्रीय स्तर पर स्वीकृति मिली है, जहाँ रवीश कुमार को इसके लिए सिर्फ बधाई मिलनी चाहिए। बस! वहीं कुछ लोग खुशी में पागल हुए जा रहे हैं तो कुछ लोग गम दीवाने!
वो जगह
ढूँढ रहा हूँ जाने कब से
धुँध में प्रकाश में
कि सिरा कोई थाम लूँ
जो लेकर मुझे उस ओर चले
जाकर जिधर
संशय सारे मिट जाते हैं
और उत्तर हर सवाल का
सांसों में बस जाते हैं।
मेरी कहानी
तूफान कोई आकर
क्षण में चला जाता है
पर लग जाते हैं बरसों
हमें समेटने में खुद को
संभला ही नहीं कि बारिश कोई
जाती है घर ढहाकर।
सूर्ख शर्तें
कुछ चेहरे
बस चेहरे नहीं होते
सूर्ख शर्तें होती हैं हमारे होने की।
कुछ बातें
बस बातें नहीं होतीं
वजह होती हैं हमारे होने की।
और बेवजह भी बहुत कुछ होता है
जिनसे जुड़ी होती हैं
हमारी साँसें होने की।
समय
समय की ही कहानी कह रहे हैं सभी
पशु, आदमी या हो फिर कोई चींटी।
हेर-फेर है किरदारों में बस
कि आइने की अराइश से
बह रही हैं स्वर लहरियाँ कई
जो होकर गुजरती हैं कानों से सभी।
समय की ही कहानी कह रहे हैं सभी॥
शीला दीक्षित: एक बड़ा वृक्ष
जीवन की गति को लोग चक्रीय कहते नहीं थकते परन्तु जाने क्यों ये मुझे अजीब लगता है? क्या कारण है नहीं जानता? परन्तु इसके चक्रीय होने में अक्सर भ्रम हो जाता है। मुझे लगता है जैसे ये शंकुवन का कोई शंकुवृक्ष हो जिस पर एक ओर से चढ़ते-चढ़ते उसके शिखर पर पहुँचे ही होते हैं कि आप सरककर वहीं पहुँच जाते हैं जहाँ से आपने चढ़ना शुरु किया था।
अक्सर ऐसा होता है कि हमें वो भी याद आने लगते हैं जिनसे हमारा कोई सीधा सीधा मतलब नहीं होता है और शायद यही उन याद आने वाले लोगों की जीवन की कमाई है। खरी कमाई। कई बार मिश्री की तरह मीठी तो कई बार नमकीन या फिर कड़वी। बहुत कड़वी।
सूरज! तू क्या संग लाया है?
सूरज! तू क्या संग लाया है?
आशाओं को,
क्या पीली किरणों में बिखराया है?
सूरज! तू क्या संग लाया है?
सांसें जो
बोझिल हैं अब तक
उनको क्या तू सहलाया है?
सूरज! तू क्या संग लाया है?
बस पढनेवाला नहीं कोई
मेरे घर का मेरा वो कोना
जो अब तुम्हारा हो चुका है
मुझमें तेरे होने की
वही कहानी कहता है
जो कभी माँ
पिताजी के साथ सुनती थी
और ईया बाबा को बताती थीं।
कुछ भी नया नहीं है;
ना झगड़ा
ना ही बातें प्यार की।
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