हमने धीरे-धीरे एक ऐसा समाज बना दिया है जो आज एक बाइनरी में सोचने को मजबूर है। वो हर चीज को तेरा-मेरा के दृष्टिकोण से ही देखने का आदी हो चला है। सामाजिक विषय हो या फिर राजनैतिक, हर आदमी किसी ना किसी पक्ष में खड़ा है और उसी के हिसाब से अपने सुख और दुख, अपने लाभ और हानि और यहाँ तक की साझे इतिहास तक का उसी पैमाने पर आकलन कर रहा है। इतिहास का कौन सा चरित्र मेरा है और कौन सा तेरा है, पहले से ही तय करके बैठा है और उसी के हिसाब से उसकी संवेदनाएँ जगती हैं। पता नहीं इसे क्या कहें? उच्च राजनैतिक अवेयरनेस या वैचारिक रतौंधी?
जवाहरलाल नेहरू: भारतीय लोकतंत्र के नींव का पत्थर

भारत के प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू एक राजनेता थे। एक स्टेससमैन के रूप में वे अपनी समझ और सामर्थ्य के अनुसार अपने समकालीन परिस्थितियों में जो कुछ भी देशहित में हो सकता था, करने का प्रयास किया। उनके कुछ निर्णयों से देश को दूरगामी लाभ मिला तो कुछ से दूरगामी नुकसान भी। और इसमें कहीं से कुछ भी असामान्य नहीं है। पूरी दुनिया के इतिहास में एक भी ऐसा राजनेता नहीं मिलेगा जिसके सारे ही निर्णय समय की कसौटी पर सही साबित हुए हों। ये संभव ही नहीं है। सबसे आश्चर्यजनक बात ये होती है कि इस बात को हर राजनेता जानता है फिर भी उसे निर्णय लेना होता है और वो लेता है। नेहरू कहीं भी इससे भिन्न नहीं थे।
विकास और राष्ट्रीयता का भाव, भाजपा का प्रचण्ड बहुमत

चुनावी राजनीति कहीं से भी ऊपर के संतुलन से अलग नहीं है। बल्कि चुनावी राजनीति में प्रोडक्ट की क्वॉलिटी और पैकेजिंग का एक सामान्य प्रोडक्ट की तुलना में बहुत ज्यादा योगदान होता है और ये काम एक सामान्य सामान बेचने की तुलना में कहीं बहुत ही कठिन काम है। राजनीति में प्रोडक्ट की क्वॉलिटी विकास के पैमाने पर मापी जाती है; तो पैकेजिंग को भावनात्मक अपील से परखा जाता है। जिस भी राजनैतिक दल ने इस सन्तुलन को हाशिल करने में सफलता प्राप्त की है, वह हिट है और आगे भी हिट रहेगा। भाजपा ने यही किया और परिणाम सबके सामने है। प्रचण्ड बहुमत। विकास उसक्के प्रोडक्ट का गुणवत्त्ता था तो राष्ट्रीयता का भाव उसकी पैकेजिंग का पैमाना। (इसे आप अपने बनाए राष्ट्रवाद से सीमित परिभाषा से ना जोडें)।
लम्हे की कहानी
परन्तु हम गवाहियों की परवाह कहाँ करते हैं? हम तो बस उन चीजों के होने से ही इत्तेफाक़ रखते हैं जो हममें इत्तेफाक़ रखती हैं। और जो हममें इत्तेफाक नहीं रखतीं, उसका होना, ना होना, हमारे लिए कोई मायने नहीं रखता। हमारे लिए तो बस इतना ही महत्त्वपूर्ण है कि कौन, कितना दे सकता है और कितना ले सकता है? शायद इतना भर का ही कारोबार है। एक ऐसा व्यापार जो हमेशा ही घाटे का होता है। कुछ खोटी चीजों से जाने क्या-क्या बदल लेते हैं?
कितने पथिक
मैं पथ बन
हर पल खड़ा हूँ
कितने पथिक
आए-चले गए।
कुछ देर तक ठहरे
कुछ गहरे कहीं तक उतरे
और पल में कुछ
कहानी नई कर गुजरे।
कितने पथिक
आए-चले गए॥
चुनावी चक्कलस का मंत्र

ये कौन आया है, दरवाजे पर खड़ा?
ये कौन आया है, दरवाजे पर खड़ा?
देता नहीं जवाब, है मौन मुस्करा रहा
नाम पूछा, पता पूछा
आने की वजह पूछा
कुछ ना बोला मुस्कराता रहा
चुपचाप मगर कुछ बताता रहा।
ये कौन आया है, दरवाजे पर खड़ा?
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