धीमा किन्तु मजबूत कदम

पिछली जुलाई में जब नवनिर्वाचित सरकार ने पिछली सरकार निर्णय को बदलते हुए विश्व व्यापार संगठन के व्यापार सरलीकरण समझौता को स्वीकार करने से मना किया तो पुरी दुनिया स्तब्ध रह गयी थी। आर्थिक विशेषज्ञ, विकसित देश व अंतराष्ट्रीय संगठनों ने कड़ी प्रतिक्रिया दी थी और उन दिनों में भारत की आर्थिक संदर्भों में भावी अंतराष्ट्रीय भूमिका संदिग्ध मानी जा रही थी। तब लगभग एकमत राय थी कि भारत द्वारा लिये गये इस फैसले से इसके अंतराष्ट्रीय भूमिका और हितों पर नकारात्मक असर पड़ेगा लेकिन जब हम आज पीछे मुड़कर देखते हैं तो स्पष्ट हो जाता है कि वो फैसला भारत के लिए लाभकारी साबित हुआ और पुरी दुनिया की राय भारत को लेकर सकारात्मक हुई है। परन्तु ये यूँ ही नहीं हुआ है। इसके पीछे सरकार द्वारा घरेलू स्तर पर लिए गये निर्णय और कार्यवाहियों का योगदान है।

जिन्दगी

अटूट बंधन के मई अंक में प्रकाशित कविता। धन्यवाद वंदना वाजपेयी जी
आदमी 
चुपचाप रहे
या बातें करे बहुत
जिन्दगी
बेपरवाह
चलती रहती है।

तरतीब भी वही
तरकीब भी वही
जिन्दगी खामोश
उसी पुराने धर्रे से
पिघलती रहती है।

बस 
आँख नई होती है
जो सब कुछ
नया गढ़ती है।
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राजीव उपाध्याय

नज़र से नज़र की बात

नज़र ने तेरे 
नज़र से मेरे 
नज़र की बात की थी 
पल दो पल की नहीं 
सदियों से लम्बी बड़ी……… 
मुलाकात की थी।

बंदिशें…… 
थीं जो दरम्याँ कुछ 
नज़रों में ही टूट गईं 
पर इतेफ़ाक़ 
ये भी कुछ अज़ीब था, 
कि बात सारी 
जो भी हुई 
नज़रों में ही छूट गई। 
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राजीव उपाध्याय

It’s Hypocrisy that Encourages Communalism in India

Media reports clearly suggest that 86 families belonging to Dalit community are threatening to accept Islam if it can save their houses. These reports on the very first instance seem that this threat is nothing but tactics to gain media attention so that they can raise their issue to broader public so that they can gain some public sympathy and may be immediate relief. These people have been living on unauthorized area for decades. This is now being treated as encroachment by authorities, so they trying to vacate the land so that can build road. It is clearly a case of illegal encroachment. But this needs humanitarian approach. Though, not right precedence.

इज्जतदार लेखक

अक्सर लेखक लोग अकादमियों और मंत्रालय के अधिकारियों को कोसते रहते हैं कि क्यों लेखक को जीते जी सम्मान नहीं देते हैं वो। लेखक के मरने के बाद ही क्यों उसे सम्मान मिलता है। मैंने अक्सर देखा है कि गलती तो इन शरीफ लोगों की होती है। पर ये शब्दों के खिलाडी दूसरों पर दोषारोपण करते रहते हैं। ये बेचारे सचिव इत्यादि अधिकारियों की चमडी मोटी होती है कि उन पर कोई बुरा असर नहीं पडता नहीं तो कोई सामान्य जन (आम आदमी नहीं कह सकता) होता तो कब का इति श्री रेवा खण्डे समाप्तः हो चुका होता।
होता यूँ है कि अधिकारीगण तो इन्तजार करते रहते हैं कि कब लेखक कवि महोदय आकर सलाम करें, कुछ चिकनी चुपडी कविता कहानी उनके प्रशंसा में लिखे। पर लेखक जाते ही नहीं (जो जाते हैं उनके घर सम्मान रखने जगह ही नहीं रह जाती) और वो इन्तज़ार करते रह जाते हैं कि अब आएंगे कि तब आएंगे। कई बार तो खबर भी भिजवाते हैं। उलाहना भी देते हैं। पर भाई लेखक तो ठहरा लेखक। धुन का पक्का। नहीं जाएंगे तो नहीं जाएंगे औरी अधिकारी भी जिद्दी। बस इसी रस्साकशी में लेखक महोदय कभी बिना तो कभी खुब खाकर निकल लेते हैं। तब बेचारा अधिकारी बडा दुखी होता है। सोचता है कि का बेवजह ही लेखक महोदय के साथ फोटो खींचवाने का मौका से निकल गया। और ये सोचकर लेखक महोदय की इज्जत अफजाई कि सोचता है कि उधर लेखक महोदय का भूत जो कभी पुरस्कार के पीछे भागे नहीं पुरस्कार पाने के लिए बेचैन हो ऊठता है और वो भूत रोज सपनों में तो कभी रास्ते पर तो कभी गाड़ी में अधिकारी महोदय को डराने लगता है। और बेचार आतंकित अधिकारी हारकर लेखक महोदय की प्रतिमा पर फूल चढाकर उनकी आत्मा की शान्ति के लिए प्रार्थना करने के लिए मजबूर हो जाता है। चापलूसी करने की आदत होती है अधिकारी तो लेखक के भूत की जम के बडाई करता और लेखक महोदय की आत्मा तृप्त होती है और वो ये इहलोक छोड़ कर परम धाम को चले जाते हैं। इस तरह अधिकारी बेचारे को शान्ति मिलती है कुछ दिनों के लिए क्योंकि थोडे दिनों दुसरा धुनी लेखक भी मर जाता है औरी अधिकारी के प्रताडना क्रम चलता रहता है फिर भी अधिकारी को ही ये लेखक दोषी ठहराते हैं जबकि हैं स्वयं दोषी। वैसे भी साहित्य में परम्परा है कि जो लेखक जीते जी इज्जतदार हो जाता है वह बाजारू कहलाता है और कभी-कभी दला……(?)

तय आपको करना है कि आप जाना कहाँ चाहते हैं?

हर गुनाह के जाने ही कितने पहलू और पक्षकार होते हैं लेकिन दिन के उजाले में कुछ ही पहलू और पक्षकार आते हैं और बाकी विभिन्न पक्षकारों की सुविधा के अनुसार छिपा दिए जाते हैं। इस काम को करने में बुद्धिजीवियों की महत्तपूर्ण भूमिका होती है जो अपनी सुविधाओं (जिनका हुक्म बजाते हैं) के अनुसार तर्क गढते हैं और ये तर्क अक्सर सत्य को छिपाकर अक्सर नये सत्य गढते हैं और गुनाहगार बच निकलता है और लोग छाती पिटते रह जाते हैं।

एक लम्बा इतिहास है भारत में जहाँ सैकड़ों हाशिमपुरा और गुजरात जैसे नरसंहार लोगों की जिन्दगी में नासूर बनकर ताउम्रा सालते रहे है। ये इन्सान के द्वारा इन्सान के लिए बनाई गई त्रासदियाँ हैं जिसमें दोनों ही पक्ष पिसता है ठीक उस आदमी की तरह जिसका घर अचानक आए तुफान में गिर जाता है और वो आदमी समझ नहीं पाता क्या करे और क्या ना करे। सालों लग जाते हैं उसको घर को दुबारा बनाते-बनाते। पर घर बन जाने के बाद टीस कम हो जाती है। पर इस तरह के नरसंहारों से होकर गुजरने वाला इन्सान उस त्रासदी के नासूर से ताउम्र हर रोज़ मरता रहता है और कई बार उस नासूर को अगली पीढ़ी को भी देकर जाता है।

चाहे वो हाशिमपुरा हो या गुजरात गलतियाँ दोनों पक्षों ने की जिसके लिए दोनों पक्षों को सजा मिलनी चाहिए लेकिन बुद्धिवादियों ने सिर्फ एक पक्ष को दोषी बना दिया और दूसरे पक्ष को दूध को धुला। लेकिन ऐसा कभी भी नहीं हुआ। निष्पक्ष न्याय तो यही कहता है अगर गलती दोनों पक्षों ने की तो सजा दोनों को मिलनी चाहिए और उसको ज्यादा जिसने पहला पत्थर फेंका। और न्याय करते हुए आपको भूल जाना होगा कि उस पक्ष का धर्म या जाति क्या है? न्यायलय की दृष्टि में वह सिर्फ और सिर्फ गुनाहगार है क्योंकि अगर आप गुनाहगार में धर्म और जाति देखते हैं तो गुनाह को जान बुझकर बढावा दे रहे हैं। क्योंकि जिसको इस बंटवारे से फायदा होगा वो उस गलती को दुहराते हुये डरेगा नहीं और जिसका नुकसान होगा वो प्रतिक्रिया करेगा ही करेगा क्योंकि ये उसके लिए न्याय नहीं हो सकता। ये इन्सानी स्वभाव है और ये चक्र चलता रहेगा। एक ना रुकने वाला चक्र जिसमें हर कोई पीसता रहेगा। लोग लोकतन्त्र और न्यायलय को गालियाँ देते रहेंगे पर लोग मरते रहेंगे। तादाद बढती जाएगी।

अब तय आपको करना है कि आप जाना कहाँ चाहते हैं?

कोटि कोटि नमन कि आज हम आज़ाद हैं

आज शहीद-ए-आज़म भगत सिंह जी के शहादत पर कुछ महत्त्वपूर्ण उपलब्धियाँ रहीं हैं इस राष्ट्र की, इस समाज की। आज विद्वतजनों ने बहुत सारी पुरानी पड़ चुकीं परिभाषाओं एवं विमर्श के झाड़-फोछकर नये युग की नयी आवश्यकताओं के हिसाब से परिभाषित कर दिया है। उनके अथक प्रयासों के फलस्वरूप नास्तिकता, आस्तिकता, राष्ट्रवाद, जाति, धर्मनिरपेक्षता एवं सामाजिक समरसता जैसे महत्त्वपूर्ण विषयों पर बेहद ऊँचे दर्जे का ज्ञान संवर्धन हुआ है (वैसे कुछ समय पहले तक इनके लिए आस्तिकता, राष्ट्रवाद और जाति जैसे जुमले बजबजाती नाली से निकलते दुर्गंध के समान हुआ करता था)। यह पुरा राष्ट्र उनका आभारी है और साहित्य एवं विमर्श का तो पुनर्जन्म ही हो गया। वैसे भी तकरीबन पिछले सौ सालों से इन्होंने साहित्य के लिए बहुत कुछ किया है विचारधारा के तिनके के सहारे इस संसार के बड़वानल में। आपका शौर्य एवं पराक्रम देखकर शहीद-ए-आज़म भी उपर वाले को धन्यवाद कहते होंगे कि हे भगवन! (माफी चाहता हूँ। आप तो नास्तिक थे) अच्छा किया जो इन महावीरों के युग में पैदा नहीं किया नहीं तो हमें प्रमाणपत्र देने के लिए ये जाने क्या-क्या हमसे करवाते।
कोटि कोटि नमन आप सभी को कि आज हम आज़ाद हैं।

बुद्धिजीवी का विमर्श

लोगों को (मुख्य रूप से बुद्धिजीवियों को) ये कहते हुए अक्सर सुनता हूँ कि वक्त बहुत खराब हो गया है। विमर्श के लिए कोई जगह शेष नहीं बची है। संक्रमण काल है। गुजरे जमाने को तो नहीं जानता पर जरुर 12 -15 साल से इन महान विचारकों और बुद्धिजीवियों को देख और पढ़ रहा हूँ। वैसे मेरे पिता श्री इनको बुद्धि-पशु कहना ज्यादा उचित मानते हैं। इन्होंने विमर्श के नाम पर एक दूसरे की या तो बड़ाई की है (प्रगतिशील भाषा में खुजलाना कहते हैं) या फिर पुरी ताकत लगाई उसे गलत और पद दलित बनाने में और इस दौरान अगर किसी ने गलती से विमर्श के विषय में चर्चा मात्र भी किया है तो एकजुट होकर झट से उसको समेटने में लग गये हैं। अगर सामने वाला उनकी तथा कथित महान विचारधारा का नहीं है (जो अक्सर वामपन्थ के नाम से जाना जाता था, अब तो खैर वाम पन्थ फैशन मात्र है जो अक्सर पेज थ्री की पार्टियों में ही दिखाई देता है) तो उसका चरित्र हनन करने में थोड़ा भी हिचकते नहीं हैं। क्या विमर्श में विरोधी विचार धारा के लिए स्थान नहीं होता है? अगर नहीं तो विमर्श किस बात का? क्या सिर्फ इस बात का कि तुम्हारे शर्ट के अच्छा मेरा कुरता है? क्योंकि ये आम आदमी, नहीं क्षमा चाहता हूँ अब तो आम आदमी पर आम आदमी पार्टी का कापीराइट है तो सामान्य जन का पहनावा है। सामान्य जन कहने में भी खतरा है दक्षिणपन्थी कहलाने का। खैर आज विमर्श कुछ इस तरह से होता है कि एक बुद्धिजीवी दूसरे बुद्धिजीवी से कहता है –
“बेवकूफों के शहर में क्यों रहता है
खुद को बेवकूफ क्यों समझता है?
पलट कर देख जमाना सारा चोर है
बस तू ही अकेला मूँहजोर है।”
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राजीव उपाध्याय

आपका एक आराधक (वही 90 फीसद मूर्खों वाला)

हे! पक्ष-विपक्ष के देवतागण अगर संभव तो आप सभी देवासूर संग्राम के इस धर्मयुद्ध को बन्दकर इस तुच्छ राष्ट्र के बारे में सोचिए। क्योंकि देर हो जाने के बाद हाथ मलते रह जाएगें। अगर दिन में एक साथ सियार ध्वनि नहीं निकाल सकते तो अपने वाले समय में ही (शाम की निश्चित हुड़दंगई काल) कुछ पाठ-वाठ कर लीजिए। हमारा भी कल्याण हो जाएगा और आप सभी का भी क्योंकि हमारे ही कल्याण से आपके रसपान का रास्ता निकलता है। क्योंकि सदैव देखा और पाया गया है कि आप सभी अपने कल्याण हेतु समस्त साधनों का निर्धारण बड़ी शालीनता से करते हैं जिसे देखकर हम सामान्य जन (आम आदमी का प्रयोग अब वर्जित है क्योंकि किसी ने इस पर कापीराइट ले रखा है) हतप्रभ हो उठते हैं इतने शालीन देवों के पूजक इतने अशालीन कैसे हो सकते हैं। पुनः आप सभी हमें लज्जित करने की कृपा करें।
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राजीव उपाध्याय

The Present Form of Land Acquisition Bill Will Setup Wrong Economic Discourse

Everyone would agree with the argument of the government that land is needed for development of nation but why to undermine rights of someone to achieve the goal of development? Would it be in category of development when thousands of people would be jobless, homeless and identity-less? For a farmer, land is very important. I would not compare it with mother but it is important for them as it has emotions value rather than just an economic commodity. Government need to tread carefully as it would have long term consequence for Indian society that in the process of complete change.

For any government it is not possible to come with a policy that is welcomed by everyone in the system but It can come up with a policy that is reasonable enough to communicate its right motives and does not compromise with the rights of anyone without any provision to compensate for those. 

            "It is natural in the process of development, rights and interests of a few would be compromised and government is for making provisions for right kind of remedies." 

In case of present Land Acquisition Bill, government failed to perform on this account. It has faulty compensation rules; there is lack of accountability by dropping the idea of social impact assessment and misguided use of land. Idea of comprehensive Land Acquisition Law is need of the hour but it must be inclusive of everyone in the chain as the broken chains in the economic restructuring will end up rigging the whole economic set up in a tone that USA and other developed countries are witnessing today and people had to protest against the economic policy (remember OccupyWall Street Movement of 2011).

Policy level examples from other countries do give some basic guidance about what to do and what not to but not the complete guidance. Those need customization according to the needs the particular country and in a country of farmers you simply cannot undermine the rights of farmers. India obviously needs a right and comprehensive law in place for the purpose of land acquisition to increase economic activities in country but not a law like the proposed Land Acquisition Ordinance/Bill. It must consider the rights of farmers. Some dilution is needed mainly relating usages for industry, compensation and accountability. Government needs to pro-development but neither pro-farmer nor pro-industry. And it is possible but not being tough. Rather it has to listen to different stakeholders. But at the same time the interest groups and opposition must be reasonable. They must accept the fact that land is needed for the development and they must be ready to offer their lands for the nation.