सालती है जब ना तब

मुश्किल नहीं बातों को
भुलाकर बढ जाना आगे;
पर धूल जो लगी है पीठ पर
सालती है जब ना तब
और सालती रहेगी जब तक
कुछ ना कुछ होता रहेगा
कि होने से फिर होने का
इक सिलसिला हो जाएगा
जो फिर कहानी में कई
मोड़ तक ले जाएगा
और जाने का सिला
जानिब तक पहुँच ना पाएगा।
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राजीव उपाध्याय

आईना मगर सब कहता है

कर जो-जो तू चाहता है
कि मुक्कमल जहाँ में तू रहता है।

हसरतें तेरी आसमानी हैं
कि सब कुछ तू, तू ही चाहता है।

जमीं आसमां एक करता है
आसमां मगर जमीं पर ही रहता है।

कोई सवाल नहीं है तुझसे
मगर सवाल तो बनता है।

अब तू जवाब दे ना दे
आईना मगर सब कहता है।
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राजीव उपाध्या

नाम पूछते हैं

कत्ल करने से पहले वो मेरा नाम पूछते हैं 
छुपी हुई नाम में कोई पहचान पूछते हैं। 

यूँ करके ही शायद ये दुनिया कायम है 
जलाकर घर मेरा वो मेरे अरमान पूछते हैं। 

तबीयत उनकी यूँ करके ही उछलती है 
जब आँसू मेरे होने का मुकाम पूछते हैं। 

ऐसा नहीं कि दुनिया में और कोई रंग नहीं 
पर कूँचें मेरी हाथों की दुकान पूछते हैं। 

हर बार कहता हूँ बस रहने दो अब नहीं 
पर भीड़ में आकर वही फिर नाम पूछते हैं।
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राजीव उपाध्याय

बिस्तर ताले में बन्द हो गया

छोटा बेटा था मैं 
हाँ सबसे छोटा 
जिसके बालों की चाँदी को अनदेखा करके 
किसी ने बच्चा बनाए रखा था 
जिससे लाड़ था 
प्यार था 
दुलार था 
कि आदत जिसकी 
हो गई खराब थी 
कि अचानक 
अनचाही एक सुबह 
यूँ करके उठी 
कि मायने हर बात के बदल गए 
कि वो बच्चा आदमी सा बन गया 
कि बिस्तर भी उसका सोने का बदल गया 
क्योंकि बिस्तर जिस पर 
माँ सोती थी 
किसी ताले में बन्द हो गया। 
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राजीव उपाध्याय

जिन्दगी अजीब है

ये जिन्दगी अजीब है 
कि हर आदमी 
जो मेरे करीब है 
कि संग जिसके 
कुछ पल 
कुछ साल गुजारे थे मैंने; 
जिनमें से कइयों ने तो 
अँगुली पकड़कर 
चलना भी सिखाया था, 
दूर 
बहुत दूर चले जा रहे हैं 
जहाँ से वो ना वापस आ सकते हैं 
और ना ही मैं मिल सकता हूँ उनसे 
और इस तरह 
हर पल 
थोड़ा कम 
और अकेला होता जा रहा हूँ मैं। 

यूँ तो चारों तरफ 
झुंड के झुंड लोग हैं 
और चेहरे कई 
जाने-पहचाने से भी हैं 
पर उस जान-पहचान का क्या? 
कि हँस तो सकते हैं वो संग मेरे 
और रो भी सकते हैं 
पर कदम दो कदम 
संग टहल सकते नहीं। 

ऐसा नहीं 
कि इस भीड़ में 
बस अकेला मैं ही हूँ। 
हर कोई तन्हा है 
अकेला है 
पर भीड़ 
इस कदर है आस-पास उसके 
कि वो नहीं 
बस भीड़ ही भीड़ है 
कि आदमी, आदमी का जंजीर है। 
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राजीव उपाध्याय

यूँ भी

मेरे कहे का यूँ कर ना यकीन कर
मतलब मेरे कहने का कुछ और था।
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मेरे जानिब भी तो कभी रूख हवा का करो
कि उदासियाँ भी सर्द मौसम सी होती हैं।
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है ही नहीं कुछ ऐसा कि मैं कहूँ कुछ तुमसे
बात मगर जुबाँ तक आती है कोई ना कोई।
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तुम्हारी खुशबू

तुमने मुझसे 
वो हर छोटी-छोटी बात 
वो हर चाहत कही 
जो तुम चाहती थी 
कि तुम करो 
कि तुम जी सको 
पर शायद तुमको 
कहीं ना कहीं पता था 
कि तुमने अपनी चाहत की खुश्बू 
मुझमें डाल दी 
वैसे ही जैसे जीवन डाला था कभी 
कि मैं करूँ; 
और इस तरह 
शायद वायदा कर रहा था मैं तुमसे 
उस हर बात की 
जिससे जूझना था मुझे 
जहाँ तुम्हारा होना जरूरी था; 
पर तुम ना होगी 
ये जान कर शायद इसलिए 
तैयार कर रही थी मुझे। 

पर तब कहाँ समझ पाया 
कि माथे पर दिए चुम्बन 
बालों को मेरे सहलाने 
टकटकी लगा कर देखने का 
मतलब ये था 
कि हर शाम की सुबह नहीं होती
कि कुछ सुबहें कभी नहीं आतीं।
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राजीव उपाध्याय

जब आदमी नज़र आता है

कि उम्र सारी 
बदल कर चेहरे 
खुद को सताता है 
जब जूस्तजू जीने की 
सीने में जलाता है; 
उम्र के 
उस पड़ाव पर 
आ कर ठहर जाना ही 
सफ़र कहलाता है 
आदमी
जब आदमी नज़र आता है।
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राजीव उपाध्याय

कुछ आँसू

मिरी आँखों से कुछ आँसू 
ऐसे भी रिसते हैं 
जो किसी को दिखते नहीं 
और शायद 
अब उनका कोई मतलब भी नहीं। 

पर इतना यकीन 
मुझको मेरे 
आँसुओं के बह जाने में है 
कि साँसे भी मेरी 
कई बार फीकी पड़ जाती हैं 
और मेरे होने की वजह भी 
उन आँसुओं तक चली आती है।
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राजीव उपाध्याय

अजनबी है

रहता हूँ शहर में जिस
अजनबी है।
कभी कहीं
तो कभी कहीं है॥

हालात है ये
कि ना कोई जानने वाला
और ना ही
सड़कें पहचानती हैं।
रहता हूँ शहर में जिस
अजनबी है।

हर तरफ शोर ही शोर है
और चकाचौंध भी
पर मनहूस सी खामोशी कोई
भारी है सीने में;
जो जीने का सबब भी देती है
और मरने की वजह भी;
और यूँ कर के बेखौफ हूँ
फिर भी मगर
डर कहीं ना कहीं है।
रहता हूँ शहर में जिस
अजनबी है॥

जान-पहचान के लोग
और गलियाँ सारी
जो सुनते थे मुझको;
खामोश हो गए हैं
कि मुलाकात अब होती नहीं;
और गाहे-बाहे
जो पड़ते कभी सामने
तो फेरते हैं मुँह
जैसे कोई अजनबी।
रहता हूँ शहर में जिस
अजनबी है।

कुछ इस तरह से
दो छोरों के बीच
नदी बन बहता जा रहा हूँ
जिसमें कोई रवानगी नहीं;
बस हड़बड़ी है एक
कि छोर दोनों एक हो जाएं
या मैं खो जाऊं कहीं।
बस इतने में ही सिमटी
ये जिन्दगी है।
रहता हूँ शहर में जिस
अजनबी है॥
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राजीव उपाध्याय