बिस्तर ताले में बन्द हो गया

छोटा बेटा था मैं 
हाँ सबसे छोटा 
जिसके बालों की चाँदी को अनदेखा करके 
किसी ने बच्चा बनाए रखा था 
जिससे लाड़ था 
प्यार था 
दुलार था 
कि आदत जिसकी 
हो गई खराब थी 
कि अचानक 
अनचाही एक सुबह 
यूँ करके उठी 
कि मायने हर बात के बदल गए 
कि वो बच्चा आदमी सा बन गया 
कि बिस्तर भी उसका सोने का बदल गया 
क्योंकि बिस्तर जिस पर 
माँ सोती थी 
किसी ताले में बन्द हो गया। 
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राजीव उपाध्याय

जिन्दगी अजीब है

ये जिन्दगी अजीब है 
कि हर आदमी 
जो मेरे करीब है 
कि संग जिसके 
कुछ पल 
कुछ साल गुजारे थे मैंने; 
जिनमें से कइयों ने तो 
अँगुली पकड़कर 
चलना भी सिखाया था, 
दूर 
बहुत दूर चले जा रहे हैं 
जहाँ से वो ना वापस आ सकते हैं 
और ना ही मैं मिल सकता हूँ उनसे 
और इस तरह 
हर पल 
थोड़ा कम 
और अकेला होता जा रहा हूँ मैं। 

यूँ तो चारों तरफ 
झुंड के झुंड लोग हैं 
और चेहरे कई 
जाने-पहचाने से भी हैं 
पर उस जान-पहचान का क्या? 
कि हँस तो सकते हैं वो संग मेरे 
और रो भी सकते हैं 
पर कदम दो कदम 
संग टहल सकते नहीं। 

ऐसा नहीं 
कि इस भीड़ में 
बस अकेला मैं ही हूँ। 
हर कोई तन्हा है 
अकेला है 
पर भीड़ 
इस कदर है आस-पास उसके 
कि वो नहीं 
बस भीड़ ही भीड़ है 
कि आदमी, आदमी का जंजीर है। 
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राजीव उपाध्याय

यूँ भी

मेरे कहे का यूँ कर ना यकीन कर
मतलब मेरे कहने का कुछ और था।
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मेरे जानिब भी तो कभी रूख हवा का करो
कि उदासियाँ भी सर्द मौसम सी होती हैं।
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है ही नहीं कुछ ऐसा कि मैं कहूँ कुछ तुमसे
बात मगर जुबाँ तक आती है कोई ना कोई।
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तुम्हारी खुशबू

तुमने मुझसे 
वो हर छोटी-छोटी बात 
वो हर चाहत कही 
जो तुम चाहती थी 
कि तुम करो 
कि तुम जी सको 
पर शायद तुमको 
कहीं ना कहीं पता था 
कि तुमने अपनी चाहत की खुश्बू 
मुझमें डाल दी 
वैसे ही जैसे जीवन डाला था कभी 
कि मैं करूँ; 
और इस तरह 
शायद वायदा कर रहा था मैं तुमसे 
उस हर बात की 
जिससे जूझना था मुझे 
जहाँ तुम्हारा होना जरूरी था; 
पर तुम ना होगी 
ये जान कर शायद इसलिए 
तैयार कर रही थी मुझे। 

पर तब कहाँ समझ पाया 
कि माथे पर दिए चुम्बन 
बालों को मेरे सहलाने 
टकटकी लगा कर देखने का 
मतलब ये था 
कि हर शाम की सुबह नहीं होती
कि कुछ सुबहें कभी नहीं आतीं।
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राजीव उपाध्याय

जब आदमी नज़र आता है

कि उम्र सारी 
बदल कर चेहरे 
खुद को सताता है 
जब जूस्तजू जीने की 
सीने में जलाता है; 
उम्र के 
उस पड़ाव पर 
आ कर ठहर जाना ही 
सफ़र कहलाता है 
आदमी
जब आदमी नज़र आता है।
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राजीव उपाध्याय

कुछ आँसू

मिरी आँखों से कुछ आँसू 
ऐसे भी रिसते हैं 
जो किसी को दिखते नहीं 
और शायद 
अब उनका कोई मतलब भी नहीं। 

पर इतना यकीन 
मुझको मेरे 
आँसुओं के बह जाने में है 
कि साँसे भी मेरी 
कई बार फीकी पड़ जाती हैं 
और मेरे होने की वजह भी 
उन आँसुओं तक चली आती है।
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राजीव उपाध्याय

अजनबी है

रहता हूँ शहर में जिस
अजनबी है।
कभी कहीं
तो कभी कहीं है॥

हालात है ये
कि ना कोई जानने वाला
और ना ही
सड़कें पहचानती हैं।
रहता हूँ शहर में जिस
अजनबी है।

हर तरफ शोर ही शोर है
और चकाचौंध भी
पर मनहूस सी खामोशी कोई
भारी है सीने में;
जो जीने का सबब भी देती है
और मरने की वजह भी;
और यूँ कर के बेखौफ हूँ
फिर भी मगर
डर कहीं ना कहीं है।
रहता हूँ शहर में जिस
अजनबी है॥

जान-पहचान के लोग
और गलियाँ सारी
जो सुनते थे मुझको;
खामोश हो गए हैं
कि मुलाकात अब होती नहीं;
और गाहे-बाहे
जो पड़ते कभी सामने
तो फेरते हैं मुँह
जैसे कोई अजनबी।
रहता हूँ शहर में जिस
अजनबी है।

कुछ इस तरह से
दो छोरों के बीच
नदी बन बहता जा रहा हूँ
जिसमें कोई रवानगी नहीं;
बस हड़बड़ी है एक
कि छोर दोनों एक हो जाएं
या मैं खो जाऊं कहीं।
बस इतने में ही सिमटी
ये जिन्दगी है।
रहता हूँ शहर में जिस
अजनबी है॥
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राजीव उपाध्याय

बाज़ार तो बाज़ार है

बाज़ार तो बाज़ार है 
जो खुद में ही गुलज़ार है 
उसे क्यों कर फर्क पड़ता 
गर कोई लाचार है। 
बाज़ार तो बाज़ार है॥ 

कीमत ही यहाँ हर बात में 
है मायने रखती 
बिकता यहाँ है सब कुछ 
हर कोई किरदार है। 
बाज़ार तो बाज़ार है॥ 

तुम बात कोई और आ कर 
यहाँ ना किया करो 
कीमत बिगड़ती जाती है 
और हर कोई तलबगार है। 
बाज़ार तो बाज़ार है॥ 
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राजीव उपाध्याय

कि टूटा हुआ मक़ान

ये दिल है 
कि टूटा हुआ मक़ान? 

बुर्ज़ें सारी, 
ढ़ह गई हैं 
पर, 
खिड़कियाँ बंद हैं। 

घर में कोई 
दरवाजा नहीं, 
शायद कोई आता जाता नहीं। 

अज़ीब 
विरानगी है; 
इस घर में, 
आदमी तो रहता 
पर आदमी नहीं। 

ये दिल है 
कि टूटा हुआ मक़ान? 
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राजीव उपाध्याय

गाली ही आशीर्वाद है

मुझे भाषण देने की आदत जो है कि लोग देखा नहीं कि बस उड़ेलना शुरू कर देता हूँ। बस कुछ दोस्त मिल गये तो मैं लग गया झाड़ने। खैर झाड़ते वक्त ये देख लेता हूँ कि सामने कौन है। खैर दोस्तों को भाषण पान करा रहा था (वैसे घर पर तो घरवीर बनने में यकीन रखता हूँ। अपना-अपना किस्सा है।) कि चच्चा जाने कहाँ से अवतरित हो गये? शायद थोड़ी देर मेरे महाज्ञान को सुना होगा फिर कान पकड़कर बोले -
“मतलब कर दिये ना नाजियों वाली बात। अरे भाई उन लोगों ने पुरस्कार लौटाने की घोषणा कर दी इसका मतलब ये थोड़े ही होता है कि वो पुरस्कार लौटा दें? बोलो तुम अपने माँ-बाप को बचपन में डराते थे कि नहीं अपनी बात मनवाने के लिए।”
चच्चा हमारे पूरे धर्मनिरपेक्ष पुरस्कृत महाविद्वान हैं। खैर हैं तो हैं; हमें क्या? हम भी कम विद्वान थोड़े ही हैं। तो मैंने भी दोस्तों को आँख मारते हुए (बहुत रियाज किया है) अपनी गांडीव से तीर फेंका
“अरे! हम तो पहले रोते थे जब माँ बाबूजी नहीं मानते थे तब डराने के लिए कुदते-फांदते थे तब कहीं जाकर हडताल पर जाते थे। ये तो ना ही रोए, ना ही कूदे-फाँदे और हड़ताल भी नहीं किए। सीधे तलाक पर पहुंच गये। ऐसे कहाँ मजा आता है? थोड़ा मसाला पकना चाहिए ना तभी तो सब्जी का मजा आता है। खैर आपकी तो बहुत ऊंची पकड़ है, इनको थोड़ा समझाइये।”
चच्चा मन थोड़ा कर बोले, “अरे क्या समझाएँ बबुआ उनको? समझा रहे हैं तो सब गाली दे रहे हैं। कुछ तो निठल्ले आरोप भी लगा रहें। एक हम थे कि उनके लिए दिन-रात सेटिंग करते-फिरते थे और एक वो हैं कि ………”
विद्वान लोग अक्सर बातें बीच में छोड़ देते हैं ताकि कल्पनाओं को उड़ान मिल सके और बाद में उन कल्पनाओं को लेकर बयानबाजी और विमर्श के लिए पर्याप्त स्वतंत्रता मिल सके।
मैंने भी सोचा कुछ ज्ञानार्जन किया जाए तो पूछ बैठा, “अच्छा! आप माँ-बाप की बात कर रहे थे तो पहले ये बताइए कि सरकार मां-बाप होती है क्या?”
इतना सुनना था कि झन्ना गए फूलही थरिया की तरह पर कहे बड़े प्यार जैसे प्रेयसी कहती है, “लगता है पूरा गोबर ही रह गये।”
मैं भी गली मैं जैसे सीटी बजाया करता था वैसे पूछे “क्या हुआ? काँहे गुस्सा हो रहे हैं?”
मेरा लहजा और सवाल सुनकर चच्चा पहले मुस्कराए। फिर आसमान में देखते हुए बोले, “तुम सरकार को माँ-बाप समझ रहे हो इसीलिए तो गोबर कह रहा हूँ। सरकार माँ-बाप से भी बढकर होती होती है। वो तो…………”
बीच में ही चुप हो गये और कुछ जैसे याद कर रहे हों इस मुद्रा में चले गये। पर मेरे अन्दर का विद्वान विमर्श प्रारम्भ करने के बाद चुप कैसे रह सकता था,
“अच्छा!!! वो कैसे?”
“भइया तुम रहने दो; तुम्हारी समझ ना आयेगा”, चच्चा दार्शनिक अंदाज में बोले।
“पर लोग तो ब्याज भी माँग रहे हैं और सब लाभ और लागत की भी बात कर रहे हैं ब्याज सहित।”
चच्चा पहले तो कुछ देर चुप रहे फिर उनके अंदर का साधुत्व जागा, “तुम ही बताओ ये कहां का न्याय है कि साधू-संतों से उनका मठ छीन तो रहे ही हैं लोग; मड़ई भी छीनेंगे क्या? अरे भई साधू-सवाधू-जोगी का तो गाली ही आशीर्वाद होता है। तुम समझते नहीं हो!!”
बस चच्चा भी चुप और मैं भी ज्ञानवान हो गया।