अर्थ डे के लिए

आप प्रगतिशीलता के पक्षधर बनकर चाहे जितने सेमीनार, सभा, नुक्कड़ नाटक, वैज्ञानिक शोध या चाहे जो जी में आए करिए कोई रोकेगा नहीं परन्तु आपके इन प्रयासों से तब तक होने वाला कुछ नहीं है जब तक कि आप प्रकृति के साहचर्य में जीना प्रारम्भ नहीं करते और इसके लिए अंततः आपको उसी भारतीय जीवन पद्धति को अपनाना पड़ेगा जिसे आप गालियाँ दे-देकर गलत बताते नहीं थकते। आज मराठावाड़ा और बूँदेलखण्ड सूखे के चपेट में हैं। कल बघेलखण्ड, पश्चिम उत्तरप्रदेश, हरियाणा, पंजाब, आन्ध्रा और कर्नाटक भी मराठावाड़ा और बूँदेलखण्ड का साथ निभाएंगे।

भारत एक अजायबघर

हम सभी भारत नामक अजायबघर में रहते हैं। इस अजायबघर में इस अजायबघर के लिए जान देने वालों की कीमत कुछ भी नहीं। चाहे वो मरने वाले सी आर पी एफ के जवान हों या सरहदों पर जान देने वाले वीर सैनिक (हो सकता है वो कायर भी हों। जांच की आवश्यकता है। संसद की कोई समिति बनानी चाहिए।)। इस अजायबघर की विद्वान जनता इन्हें मूर्ख मानती है और ये पगले इस अजायबघर के लिए पागल होकर जान तक दे देते हैं। ओह मैं तो भूल ही गया कि ये होते ही हैं मरने के लिए। अच्छा ही है कि कुछ तो वेतन के कर्ज से मुक्त हो पाते हैं वरना इन्हे भी औरों की तरह नर्क और दोखज में जाने किन-किन यातनाओं से होकर गुजरना पड़ता।
समझदार तो वे लोग हैं जो इस मिट्टी की खाकर इस मिट्टी को गाली देते हैं वो भी पुरी कीमत लेकर; जो इस मिट्टी की मिट्टीपलीद कर देना चाहते हैं। महान तो वे क्रांतिकारी हैं जो इस मिट्टी पर लहु का दरिया बहाना जानते हैं और कोर्ट से सजा मिलने पर इस देश का नायक बन जाते हैं। अमर शहीद तो वे हैं जिनके लिए ये देश ना तो माता है ना ही मादरेवतन है और ना ही मदरलैण्ड। उनके लिए ये तो बस एक मिट्टी का टुकड़ा मात्र है जो इनके पैरों के नीचे रौंदा जाना चाहिए तभी इनको इस देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का एहसास होता है।
ये अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी इन्ही विद्वानों कि तरह होनी चाहिए जो सिर्फ इनकी पक्षधारी हो। जो तर्क करने वाले को फासीवादी या किसी अन्य अपमानजनक नाम से पुकारती हो। जो एकतरफा निर्णय सुनाती हो। जिसे दरबार में सुनवाई होने से पहले उसकी जाति, धर्म और विचारधारा के बारे साफ-साफ बताया जाना आवश्यक हो ताकि फैसला अपने हक में सुना सके कि लोकतंत्र को बचाया जा सके। और लोकतंत्र ऐसा जिसमें जीने और सांस लेने का अधिकार सिर्फ और सिर्फ इन महान विद्वानों और विचारकों के पास हो और बाकी सभी इनके लिए बस कुछ मुद्दे बनकर हाशिए पर जीते रहें और इनको जीने के लिए आवश्यक ईंधन मुहैया कराते रहें और जैसे ही मूर्खों में से कोई भी सवाल करें इनकी गुरिल्ला अदालतें और फौजें मूर्खों को उनके घाट उतार सकें। जी हाँ कुछ ऐसा ही लोकतंत्र चाहते हैं जो बराबरी के नाम कुछ लोग विशेष अधिकार एवं सुविधाएं निर्वाध रुप से प्रदान करता हो।
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आज फिर मैं दिल अपना लगाना चाहता हूँ

आज फिर मैं, दिल अपना लगाना चाहता हूँ 
खुश है दुनिया, खुद को जगाना चाहता हूँ॥ 

तन्हाइयों की रात, गुजारी हमने अकेले सारी 
बहारों की फिर कोई, दुनिया बसाना चाहता हूँ॥ 

देर से लेकिन सही, आया हूँ लौटकर मगर मैं 
दर बदर अब नहीं, घर मैं बसाना चाहता हूँ॥ 

देखो मुड़कर इक बार फिर, अब पराया मैं नहीं 
थका हूँ चलते-चलते, दिल का ठिकाना चाहता हूँ॥ 

पोंछ लो इन आशुओं को, इनमें कोई पयाम नहीं 
सिरफिरा ही सही, दिल फिर से चुराना चाहता हूँ॥ 
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सालती है जब ना तब

मुश्किल नहीं बातों को
भुलाकर बढ जाना आगे;
पर धूल जो लगी है पीठ पर
सालती है जब ना तब
और सालती रहेगी जब तक
कुछ ना कुछ होता रहेगा
कि होने से फिर होने का
इक सिलसिला हो जाएगा
जो फिर कहानी में कई
मोड़ तक ले जाएगा
और जाने का सिला
जानिब तक पहुँच ना पाएगा।
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राजीव उपाध्याय

आईना मगर सब कहता है

कर जो-जो तू चाहता है
कि मुक्कमल जहाँ में तू रहता है।

हसरतें तेरी आसमानी हैं
कि सब कुछ तू, तू ही चाहता है।

जमीं आसमां एक करता है
आसमां मगर जमीं पर ही रहता है।

कोई सवाल नहीं है तुझसे
मगर सवाल तो बनता है।

अब तू जवाब दे ना दे
आईना मगर सब कहता है।
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राजीव उपाध्या

नाम पूछते हैं

कत्ल करने से पहले वो मेरा नाम पूछते हैं 
छुपी हुई नाम में कोई पहचान पूछते हैं। 

यूँ करके ही शायद ये दुनिया कायम है 
जलाकर घर मेरा वो मेरे अरमान पूछते हैं। 

तबीयत उनकी यूँ करके ही उछलती है 
जब आँसू मेरे होने का मुकाम पूछते हैं। 

ऐसा नहीं कि दुनिया में और कोई रंग नहीं 
पर कूँचें मेरी हाथों की दुकान पूछते हैं। 

हर बार कहता हूँ बस रहने दो अब नहीं 
पर भीड़ में आकर वही फिर नाम पूछते हैं।
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राजीव उपाध्याय

बिस्तर ताले में बन्द हो गया

छोटा बेटा था मैं 
हाँ सबसे छोटा 
जिसके बालों की चाँदी को अनदेखा करके 
किसी ने बच्चा बनाए रखा था 
जिससे लाड़ था 
प्यार था 
दुलार था 
कि आदत जिसकी 
हो गई खराब थी 
कि अचानक 
अनचाही एक सुबह 
यूँ करके उठी 
कि मायने हर बात के बदल गए 
कि वो बच्चा आदमी सा बन गया 
कि बिस्तर भी उसका सोने का बदल गया 
क्योंकि बिस्तर जिस पर 
माँ सोती थी 
किसी ताले में बन्द हो गया। 
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राजीव उपाध्याय

जिन्दगी अजीब है

ये जिन्दगी अजीब है 
कि हर आदमी 
जो मेरे करीब है 
कि संग जिसके 
कुछ पल 
कुछ साल गुजारे थे मैंने; 
जिनमें से कइयों ने तो 
अँगुली पकड़कर 
चलना भी सिखाया था, 
दूर 
बहुत दूर चले जा रहे हैं 
जहाँ से वो ना वापस आ सकते हैं 
और ना ही मैं मिल सकता हूँ उनसे 
और इस तरह 
हर पल 
थोड़ा कम 
और अकेला होता जा रहा हूँ मैं। 

यूँ तो चारों तरफ 
झुंड के झुंड लोग हैं 
और चेहरे कई 
जाने-पहचाने से भी हैं 
पर उस जान-पहचान का क्या? 
कि हँस तो सकते हैं वो संग मेरे 
और रो भी सकते हैं 
पर कदम दो कदम 
संग टहल सकते नहीं। 

ऐसा नहीं 
कि इस भीड़ में 
बस अकेला मैं ही हूँ। 
हर कोई तन्हा है 
अकेला है 
पर भीड़ 
इस कदर है आस-पास उसके 
कि वो नहीं 
बस भीड़ ही भीड़ है 
कि आदमी, आदमी का जंजीर है। 
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राजीव उपाध्याय

यूँ भी

मेरे कहे का यूँ कर ना यकीन कर
मतलब मेरे कहने का कुछ और था।
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मेरे जानिब भी तो कभी रूख हवा का करो
कि उदासियाँ भी सर्द मौसम सी होती हैं।
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है ही नहीं कुछ ऐसा कि मैं कहूँ कुछ तुमसे
बात मगर जुबाँ तक आती है कोई ना कोई।
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तुम्हारी खुशबू

तुमने मुझसे 
वो हर छोटी-छोटी बात 
वो हर चाहत कही 
जो तुम चाहती थी 
कि तुम करो 
कि तुम जी सको 
पर शायद तुमको 
कहीं ना कहीं पता था 
कि तुमने अपनी चाहत की खुश्बू 
मुझमें डाल दी 
वैसे ही जैसे जीवन डाला था कभी 
कि मैं करूँ; 
और इस तरह 
शायद वायदा कर रहा था मैं तुमसे 
उस हर बात की 
जिससे जूझना था मुझे 
जहाँ तुम्हारा होना जरूरी था; 
पर तुम ना होगी 
ये जान कर शायद इसलिए 
तैयार कर रही थी मुझे। 

पर तब कहाँ समझ पाया 
कि माथे पर दिए चुम्बन 
बालों को मेरे सहलाने 
टकटकी लगा कर देखने का 
मतलब ये था 
कि हर शाम की सुबह नहीं होती
कि कुछ सुबहें कभी नहीं आतीं।
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राजीव उपाध्याय