लौटना होगा जड़ों की ओर

नदियाँ, झीलें, तालाब और भूगर्भ का जल हर बीतते दिन के साथ सूखता जा रहा परन्तु इस धरती को जल की आवश्यकता बढती ही जा रही। दिल्ली में यमुना नाला बन चुकी है तो कानपुर में गंगा। कावेरी भी रो रही है और नर्मदा का हाल भी कुछ बहुत अच्छा नहीं है। झीलें हम इन्सानों की जमीन हवस पूरा करने में छोटी होती जा रही हैं तो गाँवों एवं शहरों के तालाब और कुँओं को पाटकर नलकूप लगा दिए गए हैं ताकि सहूलियत हो सके। पेड़ों को काटकर घरों को काँच का बना लिया ताकि इन घरों की चमक दूर तक पहुंचे कि देखने वालों की आँखें चौधिया जाएं। इस सहूलियत की लालसा, और अधिक पाने की हवस और प्रगतिशील बनने एवं दिखाने के नाटक में हमने हर उस चीज को ध्वस्त कर दिया है जो हमारे अस्तित्व के लिए जरूरी है और हमने हर उस गैर जरूरी चीजों को अपने जीवन का अपरिहार्य हिस्सा बना लिया है जिसके होने ना होने से हमारे जीवन कोई नकारात्मक असर नहीं पड़ने वाला है और हमें लगता है कि हमने विकास किया है। पता नहीं ये कैसा झूठ है या फिर साजिश कि हम आँख खोलकर देखना ही नहीं चाहते।

सुकून अपना ढ़ूँढ़ता हूँ मैं

जिन अंधेरों से बचकर भागता हूँ
हमदम हैं वो मेरे।
जिनके साथ हर पल मैं जीता हूँ
और मरता भी हूँ हर पल
कि आखिरी तमन्ना हो जाए पूरी।

मगर वो तमन्ना 
आज तक ना पाया हूँ 
कि बेवश फिरता रहता हूँ 
पूछता रहता हूँ 
मैं मेरे अंधेरों से 
"कि कुछ तो होगी 
तुम्हारे होने की वजह?" 
अक्सर वो चुप ही रहते हैं 
जब जी मुहाल कर देता हूँ उनका मैं 
तो हँस कर कहते हैं 
"और वजह क्या हो सकती है तुम्हारे सिवाय? 
मैं तुम ही हूँ 
अलग कहाँ हूँ मैं तुमसे? 
बस तुम अलहदा हो सोचते हैं 
मैं तुझमें जीता हूँ।" 

हर बार जबाव यही होता है 
और डरता हूँ मैं 
मगर जानता ये भी हूँ मैं 
कि इन सवालों में ही 
सुकून अपना ढ़ूँढ़ता हूँ मैं। 
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राजीव उपाध्याय

जरूरी नहीं

हर तस्वीर साफ ही हो ये जरूरी नहीं
जमी मिट्टी भी मोहब्बत की गवाही देती है।

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मैं भी कभी हो बेसुध, नीड़ में तेरी सोता था
बात मगर तब की है, जब माँ तुझे मैं कहता था।
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मोहब्बत में फकीरी है बड़े काम की
दिल को दिल समझ जाए तय मुकाम की॥
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क़त्ल-ओ-गारद का सामान हर हम लाए हैं
तू चाहे खुदा बन या मौत ही दे दे मुझे।
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हर आदमी यहाँ खुदा हो जाना चाहता है
कि कोई सवाल ना करे सवाल उछालना जानता है।
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राजीव उपाध्याय

मैं जानता हूँ माँ!

जिन स्वर लहरियों पर गुनगुना तुमने कभी सीखाया था
वो आज भी अधुरे हैं
कि नाद अब कोई नहीं। 

हर ध्वनि जो अब गूँजती
तुम तक क्या पहुँचती नहीं?
या अनसुनी कर देने की कला भी तुम जानती हो? 

काश तुम कुछ ऐसा करती
कि संदेश हर तुम तक पहुँचता
या फिर तुम ही कोई पाती पठाती
कि कहानियों में तेरे कुँवर बन
घोड़े को चाबुक लगाता। 

नहीं 
मैं जानता हूँ माँ!
कि अब तुम कुछ कर सकती नहीं
कि खेल के नियम बदलकर
आगे बहुत निकल गई हो
कि लौटना जहाँ से 
अब कभी मुमकिन नहीं। 

हाँ हो सके तो कुछ देर तुम इन्तजार करना
मैं भी आऊँगा राह तेरे
आज नहीं तो कल सही। 
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मैं भी कभी हो बेसुध, नीड़ में तेरी सोता था
बात मगर तब की है, जब माँ तुझे मैं कहता था। 
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राजीव उपाध्याय

अर्थ डे के लिए

आप प्रगतिशीलता के पक्षधर बनकर चाहे जितने सेमीनार, सभा, नुक्कड़ नाटक, वैज्ञानिक शोध या चाहे जो जी में आए करिए कोई रोकेगा नहीं परन्तु आपके इन प्रयासों से तब तक होने वाला कुछ नहीं है जब तक कि आप प्रकृति के साहचर्य में जीना प्रारम्भ नहीं करते और इसके लिए अंततः आपको उसी भारतीय जीवन पद्धति को अपनाना पड़ेगा जिसे आप गालियाँ दे-देकर गलत बताते नहीं थकते। आज मराठावाड़ा और बूँदेलखण्ड सूखे के चपेट में हैं। कल बघेलखण्ड, पश्चिम उत्तरप्रदेश, हरियाणा, पंजाब, आन्ध्रा और कर्नाटक भी मराठावाड़ा और बूँदेलखण्ड का साथ निभाएंगे।

भारत एक अजायबघर

हम सभी भारत नामक अजायबघर में रहते हैं। इस अजायबघर में इस अजायबघर के लिए जान देने वालों की कीमत कुछ भी नहीं। चाहे वो मरने वाले सी आर पी एफ के जवान हों या सरहदों पर जान देने वाले वीर सैनिक (हो सकता है वो कायर भी हों। जांच की आवश्यकता है। संसद की कोई समिति बनानी चाहिए।)। इस अजायबघर की विद्वान जनता इन्हें मूर्ख मानती है और ये पगले इस अजायबघर के लिए पागल होकर जान तक दे देते हैं। ओह मैं तो भूल ही गया कि ये होते ही हैं मरने के लिए। अच्छा ही है कि कुछ तो वेतन के कर्ज से मुक्त हो पाते हैं वरना इन्हे भी औरों की तरह नर्क और दोखज में जाने किन-किन यातनाओं से होकर गुजरना पड़ता।
समझदार तो वे लोग हैं जो इस मिट्टी की खाकर इस मिट्टी को गाली देते हैं वो भी पुरी कीमत लेकर; जो इस मिट्टी की मिट्टीपलीद कर देना चाहते हैं। महान तो वे क्रांतिकारी हैं जो इस मिट्टी पर लहु का दरिया बहाना जानते हैं और कोर्ट से सजा मिलने पर इस देश का नायक बन जाते हैं। अमर शहीद तो वे हैं जिनके लिए ये देश ना तो माता है ना ही मादरेवतन है और ना ही मदरलैण्ड। उनके लिए ये तो बस एक मिट्टी का टुकड़ा मात्र है जो इनके पैरों के नीचे रौंदा जाना चाहिए तभी इनको इस देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का एहसास होता है।
ये अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी इन्ही विद्वानों कि तरह होनी चाहिए जो सिर्फ इनकी पक्षधारी हो। जो तर्क करने वाले को फासीवादी या किसी अन्य अपमानजनक नाम से पुकारती हो। जो एकतरफा निर्णय सुनाती हो। जिसे दरबार में सुनवाई होने से पहले उसकी जाति, धर्म और विचारधारा के बारे साफ-साफ बताया जाना आवश्यक हो ताकि फैसला अपने हक में सुना सके कि लोकतंत्र को बचाया जा सके। और लोकतंत्र ऐसा जिसमें जीने और सांस लेने का अधिकार सिर्फ और सिर्फ इन महान विद्वानों और विचारकों के पास हो और बाकी सभी इनके लिए बस कुछ मुद्दे बनकर हाशिए पर जीते रहें और इनको जीने के लिए आवश्यक ईंधन मुहैया कराते रहें और जैसे ही मूर्खों में से कोई भी सवाल करें इनकी गुरिल्ला अदालतें और फौजें मूर्खों को उनके घाट उतार सकें। जी हाँ कुछ ऐसा ही लोकतंत्र चाहते हैं जो बराबरी के नाम कुछ लोग विशेष अधिकार एवं सुविधाएं निर्वाध रुप से प्रदान करता हो।
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आज फिर मैं दिल अपना लगाना चाहता हूँ

आज फिर मैं, दिल अपना लगाना चाहता हूँ 
खुश है दुनिया, खुद को जगाना चाहता हूँ॥ 

तन्हाइयों की रात, गुजारी हमने अकेले सारी 
बहारों की फिर कोई, दुनिया बसाना चाहता हूँ॥ 

देर से लेकिन सही, आया हूँ लौटकर मगर मैं 
दर बदर अब नहीं, घर मैं बसाना चाहता हूँ॥ 

देखो मुड़कर इक बार फिर, अब पराया मैं नहीं 
थका हूँ चलते-चलते, दिल का ठिकाना चाहता हूँ॥ 

पोंछ लो इन आशुओं को, इनमें कोई पयाम नहीं 
सिरफिरा ही सही, दिल फिर से चुराना चाहता हूँ॥ 
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सालती है जब ना तब

मुश्किल नहीं बातों को
भुलाकर बढ जाना आगे;
पर धूल जो लगी है पीठ पर
सालती है जब ना तब
और सालती रहेगी जब तक
कुछ ना कुछ होता रहेगा
कि होने से फिर होने का
इक सिलसिला हो जाएगा
जो फिर कहानी में कई
मोड़ तक ले जाएगा
और जाने का सिला
जानिब तक पहुँच ना पाएगा।
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राजीव उपाध्याय

आईना मगर सब कहता है

कर जो-जो तू चाहता है
कि मुक्कमल जहाँ में तू रहता है।

हसरतें तेरी आसमानी हैं
कि सब कुछ तू, तू ही चाहता है।

जमीं आसमां एक करता है
आसमां मगर जमीं पर ही रहता है।

कोई सवाल नहीं है तुझसे
मगर सवाल तो बनता है।

अब तू जवाब दे ना दे
आईना मगर सब कहता है।
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राजीव उपाध्या

नाम पूछते हैं

कत्ल करने से पहले वो मेरा नाम पूछते हैं 
छुपी हुई नाम में कोई पहचान पूछते हैं। 

यूँ करके ही शायद ये दुनिया कायम है 
जलाकर घर मेरा वो मेरे अरमान पूछते हैं। 

तबीयत उनकी यूँ करके ही उछलती है 
जब आँसू मेरे होने का मुकाम पूछते हैं। 

ऐसा नहीं कि दुनिया में और कोई रंग नहीं 
पर कूँचें मेरी हाथों की दुकान पूछते हैं। 

हर बार कहता हूँ बस रहने दो अब नहीं 
पर भीड़ में आकर वही फिर नाम पूछते हैं।
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राजीव उपाध्याय