जब-जब इस देश में गाँधी, नेहरू, पटेल, अम्बेडकर और दीन दयाल उपाध्याय का नाम लोगों के जुबान पर आता है तो उसके पीछे का कारण कहीं ना कहीं विमर्श ही होता है। कुछ लोग इनके सिद्धान्तों को इस देश के लिए अत्यंत ही महत्त्वपूर्ण बताते हैं तो कुछ लोग इन सभी के दिए सिद्धान्तों का खण्डन करते हैं। दोनों ही स्थिति स्वागत योग्य है और अच्छा लगता है इस देश इस विमर्श की प्रवृत्ति पर। परन्तु जब इन महान विभूतियों पर बेवजह लांछन लगाए जाते हैं तो दुख होता है। आप इन पर विमर्श और तर्क-वितर्क करिए; बहुत जरूरी है परन्तु राष्ट्र-निर्माण में इनके योगदानों को नकारिए मत। इनका योगदान आपके और मेरी अकेली समझ से कहीं बहुत बड़ा है। खैर यहाँ नेहरू के बारे में। इस छोटे से लेख में नेहरू पर बात करना संभव तो नहीं है परन्तु फिर भी प्रयास रहेगा।
भारत के प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू एक राजनेता थे। एक स्टेससमैन के रूप में वे अपनी समझ और सामर्थ्य के अनुसार अपने समकालीन परिस्थितियों में जो कुछ भी देशहित में हो सकता था, करने का प्रयास किया। उनके कुछ निर्णयों से देश को दूरगामी लाभ मिला तो कुछ से दूरगामी नुकसान भी। और इसमें कहीं से कुछ भी असामान्य नहीं है। पूरी दुनिया के इतिहास में एक भी ऐसा राजनेता नहीं मिलेगा जिसके सारे ही निर्णय समय की कसौटी पर सही साबित हुए हों। ये संभव ही नहीं है। सबसे आश्चर्यजनक बात ये होती है कि इस बात को हर राजनेता जानता है फिर भी उसे निर्णय लेना होता है और वो लेता है। नेहरू कहीं भी इससे भिन्न नहीं थे।




