जरूरी नहीं हर बात दिल तक ही पहुँचे
कुछ तो कहन आँखों का भी होता है।
---------------------------
मेरे बारे में भी कभी तो सोचा करो
बस सोचकर ही रो बैठोगे तुम।
---------------------------
जब-जब इस देश में गाँधी, नेहरू, पटेल, अम्बेडकर और दीन दयाल उपाध्याय का नाम लोगों के जुबान पर आता है तो उसके पीछे का कारण कहीं ना कहीं विमर्श ही होता है। कुछ लोग इनके सिद्धान्तों को इस देश के लिए अत्यंत ही महत्त्वपूर्ण बताते हैं तो कुछ लोग इन सभी के दिए सिद्धान्तों का खण्डन करते हैं। दोनों ही स्थिति स्वागत योग्य है और अच्छा लगता है इस देश इस विमर्श की प्रवृत्ति पर। परन्तु जब इन महान विभूतियों पर बेवजह लांछन लगाए जाते हैं तो दुख होता है। आप इन पर विमर्श और तर्क-वितर्क करिए; बहुत जरूरी है परन्तु राष्ट्र-निर्माण में इनके योगदानों को नकारिए मत। इनका योगदान आपके और मेरी अकेली समझ से कहीं बहुत बड़ा है। खैर यहाँ नेहरू के बारे में। इस छोटे से लेख में नेहरू पर बात करना संभव तो नहीं है परन्तु फिर भी प्रयास रहेगा।
किसी भी प्रोडक्ट की खरीददार की नजरों में स्वीकार्यता में उस प्रोडक्ट की उच्च क्वॉलिटी और उसकी आकर्षक पैकेजिंग का बहुत बडा योगदान होता है। किसी भी मार्केटिंग प्रोफेशनल के लिए ये कहीं से भी संभव नहीं है वो प्रोडक्ट को सिर्फ पैकेजिंग (इन्टैंजिबिलिटी) या सिर्फ प्रोडक्ट की क्वॉलिटी (टैंजिबिलिटी) के सहारे हिट करा ले। उसे दोनों ही चाहिए और वो भी सही अनुपात में। मतलब टैंजिबिलिटी और इन्टैंजिबिलिटी का संतुलन होना ही चाहिए।
सुबह सुबह की बात है (कहने का मन तो था कि कहूँ कि बहुत पहले की बात है मतलब बहुत पहले की परन्तु सच ये है कि आज शाम की ही बात है)। मैं अपनी रौ में सीटी बजाता टहल रहा था। टहल क्या रहा था बल्कि पिताजी से नजर बचाकर समय घोंटते हुए मटरगश्ती कर रहा था (इसका चना-मटर से कोई संबंध नहीं है परन्तु आप भाषाई एवं साहित्यिक स्तर पर कल्पना करने को स्वतंत्र हैं। शायद कोई अलंकार या रस ही हो जिससे मैं परिचित ना होऊँ और अनजाने में मेरे सबसे बड़े साहित्यिक योगदान को मान्यता मिलते-मिलते रह जाए)। तभी मेरी नजर चच्चा पर पड़ी जो एक हाथ में धोती का एक कोन पकड़े तेज रफ्तार में चले जा रहे थे जैसे कि दिल्ली की राजधानी एक्सप्रेस पकड़नी हो! मैंने भी ना आव देखा ना ताव; धड़ दे मारी आवाज,