नमन! विनायक दामोदर सावरकर

हमने धीरे-धीरे एक ऐसा समाज बना दिया है जो आज एक बाइनरी में सोचने को मजबूर है। वो हर चीज को तेरा-मेरा के दृष्टिकोण से ही देखने का आदी हो चला है। सामाजिक विषय हो या फिर राजनैतिक, हर आदमी किसी ना किसी पक्ष में खड़ा है और उसी के हिसाब से अपने सुख और दुख, अपने लाभ और हानि और यहाँ तक की साझे इतिहास तक का उसी पैमाने पर आकलन कर रहा है। इतिहास का कौन सा चरित्र मेरा है और कौन सा तेरा है, पहले से ही तय करके बैठा है और उसी के हिसाब से उसकी संवेदनाएँ जगती हैं। पता नहीं इसे क्या कहें? उच्च राजनैतिक अवेयरनेस या वैचारिक रतौंधी?

जवाहरलाल नेहरू: भारतीय लोकतंत्र के नींव का पत्थर

जब-जब इस देश में गाँधी, नेहरू, पटेल, अम्बेडकर और दीन दयाल उपाध्याय का नाम लोगों के जुबान पर आता है तो उसके पीछे का कारण कहीं ना कहीं विमर्श ही होता है। कुछ लोग इनके सिद्धान्तों को इस देश के लिए अत्यंत ही महत्त्वपूर्ण बताते हैं तो कुछ लोग इन सभी के दिए सिद्धान्तों का खण्डन करते हैं। दोनों ही स्थिति स्वागत योग्य है और अच्छा लगता है इस देश इस विमर्श की प्रवृत्ति पर। परन्तु जब इन महान विभूतियों पर बेवजह लांछन लगाए जाते हैं तो दुख होता है। आप इन पर विमर्श और तर्क-वितर्क करिए; बहुत जरूरी है परन्तु राष्ट्र-निर्माण में इनके योगदानों को नकारिए मत। इनका योगदान आपके और मेरी अकेली समझ से कहीं बहुत बड़ा है। खैर यहाँ नेहरू के बारे में। इस छोटे से लेख में नेहरू पर बात करना संभव तो नहीं है परन्तु फिर भी प्रयास रहेगा। 

भारत के प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू एक राजनेता थे। एक स्टेससमैन के रूप में वे अपनी समझ और सामर्थ्य के अनुसार अपने समकालीन परिस्थितियों में जो कुछ भी देशहित में हो सकता था, करने का प्रयास किया। उनके कुछ निर्णयों से देश को दूरगामी लाभ मिला तो कुछ से दूरगामी नुकसान भी। और इसमें कहीं से कुछ भी असामान्य नहीं है। पूरी दुनिया के इतिहास में एक भी ऐसा राजनेता नहीं मिलेगा जिसके सारे ही निर्णय समय की कसौटी पर सही साबित हुए हों। ये संभव ही नहीं है। सबसे आश्चर्यजनक बात ये होती है कि इस बात को हर राजनेता जानता है फिर भी उसे निर्णय लेना होता है और वो लेता है। नेहरू कहीं भी इससे भिन्न नहीं थे। 

विकास और राष्ट्रीयता का भाव, भाजपा का प्रचण्ड बहुमत

किसी भी प्रोडक्ट की खरीददार की नजरों में स्वीकार्यता में उस प्रोडक्ट की उच्च क्वॉलिटी और उसकी आकर्षक पैकेजिंग का बहुत बडा योगदान होता है। किसी भी मार्केटिंग प्रोफेशनल के लिए ये कहीं से भी संभव नहीं है वो प्रोडक्ट को सिर्फ पैकेजिंग (इन्टैंजिबिलिटी) या सिर्फ प्रोडक्ट की क्वॉलिटी (टैंजिबिलिटी) के सहारे हिट करा ले। उसे दोनों ही चाहिए और वो भी सही अनुपात में। मतलब टैंजिबिलिटी और इन्टैंजिबिलिटी का संतुलन होना ही चाहिए। 

चुनावी राजनीति कहीं से भी ऊपर के संतुलन से अलग नहीं है। बल्कि चुनावी राजनीति में प्रोडक्ट की क्वॉलिटी और पैकेजिंग का एक सामान्य प्रोडक्ट की तुलना में बहुत ज्यादा योगदान होता है और ये काम एक सामान्य सामान बेचने की तुलना में कहीं बहुत ही कठिन काम है। राजनीति में प्रोडक्ट की क्वॉलिटी विकास के पैमाने पर मापी जाती है; तो पैकेजिंग को भावनात्मक अपील से परखा जाता है। जिस भी राजनैतिक दल ने इस सन्तुलन को हाशिल करने में सफलता प्राप्त की है, वह हिट है और आगे भी हिट रहेगा। भाजपा ने यही किया और परिणाम सबके सामने है। प्रचण्ड बहुमत। विकास उसक्के प्रोडक्ट का गुणवत्त्ता था तो राष्ट्रीयता का भाव उसकी पैकेजिंग का पैमाना। (इसे आप अपने बनाए राष्ट्रवाद से सीमित परिभाषा से ना जोडें)। 

लम्हे की कहानी


हर लम्हे की अपनी कहानी होती है। वो लम्हा भले ही हमारी नज़रों में कितना ही छोटा या फिर बेवजह ही क्यों ना हो पर उसके होने की वजह और सबब दोनों ही होता है। उसका होना ही इस बात की गवाही है। 

परन्तु हम गवाहियों की परवाह कहाँ करते हैं? हम तो बस उन चीजों के होने से ही इत्तेफाक़ रखते हैं जो हममें इत्तेफाक़ रखती हैं। और जो हममें इत्तेफाक नहीं रखतीं, उसका होना, ना होना, हमारे लिए कोई मायने नहीं रखता। हमारे लिए तो बस इतना ही महत्त्वपूर्ण है कि कौन, कितना दे सकता है और कितना ले सकता है? शायद इतना भर का ही कारोबार है। एक ऐसा व्यापार जो हमेशा ही घाटे का होता है। कुछ खोटी चीजों से जाने क्या-क्या बदल लेते हैं? 

कितने पथिक

मैं पथ बन
हर पल खड़ा हूँ
कितने पथिक
आए-चले गए।

कुछ देर तक ठहरे
कुछ गहरे कहीं तक उतरे
और पल में कुछ
कहानी नई कर गुजरे।
कितने पथिक
आए-चले गए॥

चुनावी चक्कलस का मंत्र

सुबह सुबह की बात है (कहने का मन तो था कि कहूँ कि बहुत पहले की बात है मतलब बहुत पहले की परन्तु सच ये है कि आज शाम की ही बात है)। मैं अपनी रौ में सीटी बजाता टहल रहा था। टहल क्या रहा था बल्कि पिताजी से नजर बचाकर समय घोंटते हुए मटरगश्ती कर रहा था (इसका चना-मटर से कोई संबंध नहीं है परन्तु आप भाषाई एवं साहित्यिक स्तर पर कल्पना करने को स्वतंत्र हैं। शायद कोई अलंकार या रस ही हो जिससे मैं परिचित ना होऊँ और अनजाने में मेरे सबसे बड़े साहित्यिक योगदान को मान्यता मिलते-मिलते रह जाए)। तभी मेरी नजर चच्चा पर पड़ी जो एक हाथ में धोती का एक कोन पकड़े तेज रफ्तार में चले जा रहे थे जैसे कि दिल्ली की राजधानी एक्सप्रेस पकड़नी हो! मैंने भी ना आव देखा ना ताव; धड़ दे मारी आवाज, 

ये कौन आया है, दरवाजे पर खड़ा?

ये कौन आया है, दरवाजे पर खड़ा?
देता नहीं जवाब, है मौन मुस्करा रहा
नाम पूछा, पता पूछा
आने की वजह पूछा
कुछ ना बोला मुस्कराता रहा
चुपचाप मगर कुछ बताता रहा।
ये कौन आया है, दरवाजे पर खड़ा?

रवीश भाई, कन्हैया और मेरा सपना

कल रवीश भाई सपने में आए थे और कहने लगे, ‘वत्स उठो, जागो, कन्हैया को गरीब मानो और जब तक सभी उसे गरीब ना मान लें तब तक सबको मनाते रहो।’ 

मैं ठहरा मोटी बुद्धि का आदमी और वो भी नवाज शरीफ के देहाती औरत के जैसा। मगज में कुछ घुसा ही नहीं तो समझ कहाँ से आता। पहले तो यकीन ही नहीं हुआ मगर रवीश भाई तो साक्षात सामने खड़े मुस्करा रहे थे। झक मार कर यकीन हो चला तो मैंने सिर खुजलाते हुए पूछ मारा, ‘खैर ऊ तो ठीक है भाईजान! हम मजूर आदमी हैं आप जो कहेंगे सब करेंगे परन्तु मन में कुछ सवाल है।’ 

कमजोर बुनियाद इमारत की

जब बुनियाद ही कमजोर थी
उस इमारत की
तो गिरना ही था उसे
हवा-पानी से।
वैसे भी
कोई कहाँ टिक सका है
हवा-पानी में।

इमारत गिरनी थी
गिर ही गई
पर वजह कुछ और थी,
वैसे तो खड़ी रह सकती थी
कुछ सदी और भी।

Jet Airways: A Problem Created by Management and Regulator

Jet Airways is down however temporarily but there is a rare possibility that it would be back in the air again. It is likely that Jet Airways would have the same fate as of the Kingfisher’s. It is debt ridden and unable to even service the debt and very high operational costs, no pilots to fly its planes and hardly any plane. Lenders have already declined to offer emergency fund even after giving verbal assurance to provide with Rs 1200 crores. These circumstances make it even more difficult for Jet Airways to comeback in the air.